SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रनय - जैन आगम एवं साहित्य - पर शौरसेनी का प्रभाव आना प्रारम्भ हुआ। यद्यपि मथुरा से प्राप्त दूसरी है, यही कारण था कि जो उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ मथुरा में एकत्रित शती तक के अभिलेखों का शौरसेनी के प्रभाव से मुक्त होना यही हुआ उसके आगम पाठ उस क्षेत्र की बोली-शौरसेनी से प्रभावित हुए सिद्ध करता है कि जैनागमों पर शौरसेनी का प्रभाव दूसरी शती के और जो पश्चिमी भारत का निर्ग्रन्थ संघ वलभी में एकत्रित हुआ उसके पश्चात् ही प्रारम्भ हुआ होगा। सम्भवतः फल्गुमित्र (दूसरी शती) के आगम पाठ उस क्षेत्र की बोली महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित हुए। पुन: समय या उसके भी पश्चात् स्कंदिल (चतुर्थ शती) की माथुरी वाचना यह भी स्मरण रखना चाहिए कि इन दोनों वाचनाओं में सम्पादित के समय उन पर शौरसेनी प्रभाव आया था, यही कारण है कि यापनीय आगमों का मूल आधार तो अर्धमागधी आगम ही थे, यही कारण परम्परा में मान्य आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, निशीथ, कल्प है कि शौरसेनी आगम न तो शुद्ध शौरसेनी में हैं और न वलभी वाचना आदि जो आगम रहे हैं, वे शौरसेनी से प्रभावित रहे हैं। यदि डॉ० के आगम शुद्ध महाराष्ट्री में हैं, उन दोनों में अर्धमागधी के शब्द रूप टॉटिया ने यह कहा है कि आचाराङ्ग आदि श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी तो उपलब्ध होते ही हैं। शौरसेनी आगमों में तो अर्धमागधी के साथ-साथ प्रभावित संस्करण भी था जो मथुरा क्षेत्र में विकसित यापनीय परम्परा महाराष्ट्री प्राकृत के शब्द रूप भी बहुलता से मिलते है, यही कारण. को मान्य था, तो उनका कथन सत्य है, क्योंकि भगवती आराधना है कि भाषाविद् उनकी भाषा को जैन शौरसेनी और जैन महाराष्ट्री की टीका में आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, निशीथ आदि के जो सन्दर्भ दिये कहते हैं। दुर्भाग्य तो यह है कि जिन शौरसेनी आगमों की दुहाई दी जा गये हैं वे सभी शौरसेनी से प्रभावित हैं। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि रही है, उनमें से अनेक ५० प्रतिशत से अधिक अर्धमागधी और महाराष्ट्री नहीं है कि आगमों की रचना शौरसेनी में हुई थी और बाद में वे प्राकृत से प्रभावित है। श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्य आगमों में प्राकृत अर्धमागधी में रूपान्तरित किये गये। ज्ञातव्य है कि यह माथुरी वाचना के रूपों का जो वैविध्य है उसके कारणों की विस्तृत चर्चा मैंने अपने स्कंदिल के समय महावीर निर्वाण के लगभग आठ सौ वर्ष पश्चात् लेख “जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन' में की है। हुई थी और उसमें आगमों की वाचना हुई, वे सभी उसके पूर्व अस्तित्व में थे। यापनीयों ने आगमों के इसी शौरसेनी प्रभावित संस्करण को क्या शौरसेनी आगमों के भाषिक स्वरूप में एकरूपता है? मान्य किया था, किन्तु दिगम्बरों को तो वे आगम भी मान्य नहीं थे, किन्तु डॉ. सुदीप जैन का दावा है कि- “आज भी शौरसेनी क्योंकि उनके अनुसार तो इस माथुरी वाचना के लगभग दो सौ वर्ष आगम-साहित्य में भाषिक तत्त्व की एकरूपता है, जबकि अर्धमागधी पूर्व ही आगम साहित्य विलुप्त हो चुका था। श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगम-साहित्य में भाषा के विविध रूप पाये जाते हैं। उदाहरणस्वरूप आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, शौरसेनी में सर्वत्र “ण” का प्रयोग मिलता है, कहीं भी 'न' का प्रयोग व्यवहार, निशीथ आदि तो ई.पू. चौथी शती से दूसरी शती तक की नहीं है, जबकि अर्धमागधी में नकार के साथ-साथ णकार का प्रयोग रचनाएँ हैं, जिसे पाश्चात्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। ज्ञातव्य । भी विकल्पतः मिलता है। यदि शौरसेनी युग में नकार का प्रयोग अलग है कि मथुरा का जैन विद्या के केन्द्र के रूप में विकास ई.पू. प्रथम भाषा में प्रचलित होता तो दिगम्बर साहित्य में कहीं तो विकल्प से शती से ही हुआ है और उसके पश्चात् ही इन आगमों पर शौरसेनी प्राप्त होता।" (प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर, ९६, पृ.७)। प्रभाव आया होगा। यहाँ डॉ. सुदीप जैन ने दो बाते उठाई है- प्रथम शौरसेनी आगम साहित्य की भाषिक एकरूपता की और दूसरी 'ण' कार और आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन कब और कैसे? 'न' कार की। क्या सुदीप जी, आपने शौरसेनी आगम साहित्य के यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि स्कंदिल की इस माथुरी वाचना के उपलब्ध संस्करणों का भाषाशास्त्र की दृष्टि से कोई प्रामाणिक अध्ययन समय ही समानान्तर रूप से एक वाचना वल्लभी (गुजरात) में नागार्जुन किया है? यदि आपने किया होता तो आप ऐसा खोखला दावा प्रस्तुत की अध्यक्षता में हुई थी और इसी काल में उन पर महाराष्ट्री प्रभाव नहीं करते? आप केवल 'ण' कार का ही उदाहरण क्यों देते हैंभी आया क्योंकि उस क्षेत्र की प्राकृत महाराष्ट्री प्राकृत थी। इसी महाराष्ट्री वह तो महाराष्ट्री और शौरसेनी दोनों में सामान्य है। दूसरे शब्द रूपों प्राकृत से प्रभावित आगम आज तक श्वेताम्बर परम्परा में मान्य हैं। की चर्चा क्यों नहीं करते हैं? नीचे मैं दिगम्बर शौरसेनी आगमतुल्य अत: इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि आगमों ग्रन्थों से ही कुछ उदाहरण दे रहा हूँ, जिनसे उनके भाषिकतत्त्व की के महाराष्ट्री प्रभावित और शौरसेनी प्रभावित संस्करण जो लगभग ईसा एकरूपता का दावा कितना खोखला है यह सिद्ध हो जाता है। मात्र की चतुर्थ-पञ्चम शती में अस्तित्व में आये, उनका मूल आधार यही नहीं इससे यह भी सिद्ध होता है कि शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थ अर्धमागधी आगम ही थे। यह भी ज्ञातव्य है कि न तो स्कंदिल की न केवल अर्धमागधी से प्रभावित हैं, अपितु उससे परवर्ती महाराष्ट्री माथुरी वाचना में और न नागार्जुन की वलभी वाचना में आगमों की प्राकृत से भी प्रभावित हैं - भाषा में सोच-समझ पूर्वक कोई परिवर्तन किया गया था। वास्तविकता १. आत्मा के लिये अर्धमागधी में आता, अत्ता, अप्पा आदि शब्द यह है कि उस युग तक आगम कण्ठस्थ चले आ रहे थे और कोई रूपों का प्रयोग उपलब्ध है, जबकि शौरसेनी में "द' श्रुति के भी कण्ठस्थ ग्रन्थ स्वाभाविक रूप से कण्ठस्थ करने वाले व्यक्ति की कारण “आदा' रूप बनता है। समयसार मे "आदा'' के साथ-साथ क्षेत्रीय बोली से अर्थात् उच्चारण शैली से अप्रभावित नहीं रह सकता "अप्पा'' शब्द रूप जो कि अर्धमागधी का है अनेक बार प्रयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy