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________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य अपेक्षा उपमेय रत्नकान्ति को श्रेष्ठ बताने वाले व्यतिरेक अलंकार के माध्यम से 'अणहिलपुर की समृद्धि का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन' रूप अतिशयोक्ति अलंकार ध्वनित है। साथ ही सकलंक चंद्र को निष्कलंक बनाने की बात कविप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध वस्तु है। आचार्य महाकवि द्वारा आयोजित पदगत अत्यंततिरस्कृत या अविवक्षितवाच्य ध्वनि का हृदयावर्जक उदाहरण निम्नांकित गाथा में दर्शनीय है- जत्थ भवणाण अवरं देवं नागेहिं विम्या दिट्ठो । रमइ मणोसिलगोरो मणसिललित्तो मयच्छिजणो ॥ ( सर्ग १, गाथा सं. १३ ) यहाँ कवि के वक्तव्य का आशय यह है कि अणहिलनगर गनचुंबी भवनों के ऊपर क्रीडारत देवागंनास्वरूप चपलनयना सुंदरियों या राजवधुओं को देव और नागकुमार विस्मयान्वित होकर देख रहे थे। वे सुंदरियां' मैनसिल धातु की तरह गोरी थीं और उनका गोरा शरीर मैनसिल के विलेपन से युक्त था । इस प्रसंग में महाकवि द्वारा प्रयुक्त मयच्छिजणो (मृगादिजन: अथवा मदाक्षिजनः) शब्द या पद में अध्यवसित उपमेय चंचल या मदविह्वल आंखों का झटिति बोध हो जाता है। मयच्छि शब्द या पद के अपना मुख्य अर्थ छोड़कर हरिण की तरह चंचल या मद से घूर्णमान आँख का अर्थ देने से जहत्स्वार्था लक्षणा है। यहाँ अत्यंततिरस्कृतवाच्य से यह ध्वनि निकलती है कि सुंदरियों की मनोज्ञ आँखें हरिण की आँखों की तरह आयत एवं चंचल या फिर मदालय होने के कारण दर्शनीय है और मयच्छि में व्यंजना के गर्भित होने के कारण यह पदगत श्लेष की अलंकारध्वनि का भी उदाहरण है। आचार्य हेमचंद्र द्वारा उपस्थित संलक्ष्यक्रम रसध्वनि का एक निदर्शन दर्शनीय है - जण गमेपि गमेपिणु जन्हवि गम्पि सरस्सइ गम्पिणु नम्मद । लोड अजाण जं जलिबुड्डु | नं पसु किं नीरइ सिव सम्मद ॥ (तत्रैव, ८.८० ) अर्थात् गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा आदि नदियों में स्नान करने से यदि शुद्धि हो तो महिष आदि पशुओं की भी शुद्धि Jain Education International हो जानी चाहिए, क्योंकि वे भी इन नदियों में डुबकी लगाते ही रहते हैं। जो लोग अज्ञानतापूर्वक इन नदियों में स्नान तो करते हैं, पर अपने आचार-विचार को शुद्ध नहीं करते, उन्हें 'कुछ भी लाभ नहीं हो सकता। प्रस्तुत प्रसंग में महाकवि की काव्यभाषिक उक्ति में व्यंग्य रूप से शान्तरस की प्रतीति होती है। और फिर, स्नान के बाद मुक्ति का क्रम भी यहाँ लक्षित रहा है, साथ ही वाच्यार्थ - बोधपूर्वक ध्वनिरूप में शान्तरस भी अभियंजित है। नवीं दसवीं शती के प्रख्यात महाकवि कोऊहल ने अपने रोमानी अथवा कल्पनाप्रधान लीलावई महाकाव्य में ध्वनि तत्त्व के अनेक अनुशीलनीय आयामों की उपस्थापना की है। युद्ध राजा सातवाहन की प्रशस्ति में लिखित निम्नांकित गाथा में महाकवि द्वारा विनियुक्त अभिधामूलक, यानी विवक्षितान्य-परवाच्य रसध्वनि की मनोरमता अतिशय मोहक है- णिय तेय पसाहिय मंडलस्स ससिणो व्व जस्स लोएन । अक्कंत जयस्स जए पट्टी न परेहि सच्चविया ॥ ( लीलावई - गाथा सं. ६९ ) महाकवि का कथन है कि उस प्रतापी राजा सातवाहन ने अपने पराक्रम से समस्त संसार को जीत लिया है, पर शत्रुओं ने उसकी पीठ उसी प्रकार नहीं देखी है, जिस प्रकार अपने तेज के प्रकाश से संसार को धवलित करने वाले चंद्रमा का पृष्ठभाग किसी से नहीं देखा है । यहाँ चंद्रमा का पृष्ठभाग उपमान है और राजा का पृष्ठभाग उपमेय । इसी प्रकार चंद्रमा और राजा के तेज में भी उपमानोपमेय भाव है। इस चारुतापूर्ण उपमान और उपमेय के आयोजन द्वारा महाकवि कोऊहल ने यहाँ राजा की अतिशय पराक्रमशीलता रूप वीररस की ध्वनि का विन्यास किया है। इसे उपमा अलंकार से राजा के शौर्य रूप वस्तु की ध्वनि, अर्थात् अलंकार से वस्तुध्वनि का उदाहरण भी माना जा सकता है। इसमें वाच्यार्थ विवक्षित या वांछित होकर अन्यपर अर्थात् व्यंग्यार्थ का बोधक है। इसके वाच्यार्थ का न तो दूसरे अर्थ में संक्रमण होता है, और न सर्वथा तिरस्कार, बल्कि वह विवक्षित रहता है, इसलिए यह अभिधामूलक या विवक्षितान्यपरवाच्य ध्वनि का उदाहरण है । 'लीलावई कहा' में ध्वन्यात्मक, अलंकृत और रसमय वर्णनों का बाहुल्य है। निम्नांकित गाथा में भ्रांतिमान अलंकार १२०own CommEGONS For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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