SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य से वस्तुध्वनि की आवर्जकता द्रष्टव्य है- घर सिर पसुत्त कामिणि कवोल संकंत ससिकला वलयं । हंसेहि अहिलसिज्जइ मुणाल सद्धालुएहि जहिं ।। गाथा सं. ६०) यहाँ रससिद्ध कवि ने भवन की छत पर सोई हुई कामिनियों का चित्रण किया है, जिनके कपोलों में प्रतिबिम्बित चंद्रकला को मृणाल समझकर हंस उसे प्राप्त करना चाहता है। यहाँ हंस को चंद्रकला में मृणाल का भ्रम हो रहा है। अतः भ्रांतिमान अलंकार के माध्यम से कवि ने कामिनियों के कपोलों की सौंदर्यातिशयता रूप वस्तु संकेतित की है, जो अलंकार से वस्तु ध्वनि का उदाहरण है । इसी क्रम में व्यतिरेक अलंकार के माध्यम से वस्तु की ध्वनि का एक और मनोहारी उदाहरण द्रष्टव्य है-जस्स पिय बंधत्वेह व चउवयण विणिग्गएहिवेएहि । एक्क वदरणारविंदट्ठिएहिं बहुमण्णिओ अप्पा। (गाथा नं. २१) अर्थात् (बहुलादित्य के ) प्रिय बंधत्वों ने ब्रह्मा के चार मुखों से निकले चारों वेदों को उसके एक ही मुख में स्थित होने से अपने को कृतार्थ समझा । यहाँ ब्रह्मा के चार मुखों से निकले चारों वेदों की बहुलादित्य के एक ही मुख में अवस्थितिरूप व्यतिरेक अलंकार से उस वेदज्ञ की प्रकाण्ड विद्वत्ता रूप वस्तु ध्वनित है। ध्वनियों के संकर और संसृष्टि का भी प्राकृत महाकाव्यों में प्राचुर्य है। जब एक ध्वनि में अन्य ध्वनियाँ नीर में क्षीर की भाँति मिल जाती है, तब ध्वनिसंकर होता है और जब तिल और तण्डुल की भाँति मिलती हैं, तब ध्वनि-संसृष्टि होती है। ध्वनिसंसृष्टि का एक उदाहरण द्रष्टव्य है- अणकढि युद्ध सुइ जस पथाव धम्मट्टिआरिजसकुसुम । तुह गठिअवूहेणं विरोलिओ तस्स पुर जलही । (कुमारबालचरिय- ६.८१ ) इस गाथा में दशार्णपति-विजय के बाद प्रतापी राजा कुमार पाल की सेनाओं द्वारा उसकी नगरी को लूट लिए जाने का वर्णन है। Jain Education International यहां, (क) कीर्ति का अमथित दुग्ध के समान श्वेत होना रूप कविप्रौढोक्तिसिद्ध वस्तु से राजा के निष्कलंक गुणों से मण्डित व्यक्तित्व रूप वस्तु की ध्वनि है। गौणी लक्षणा से इसका ध्वन्यर्थ होगा कि राजा के आचार और विचार सर्वतो विशुद्ध हैं। पुनः (ख) अचेतन तेज और प्रताप की उष्णता से अचेतन कीर्तिपुष्प का मुरझाना ( पचाव धम्मट्टिआरि जस कुसुम) सम्भव नहीं। यहाँ मुख्यार्थ बाधित है। गौणी लक्षणा से इसका ध्वन्यर्थ होगा कुमार पाल के रोब- रुआब के सामने दशार्णनरेश का रोब-रुआब बहुत घटकर है। और फिर (ग) नगर के समुद्र (पुर जलही) होने में मुख्यार्थ की बाधा है। इसका गौणी लक्षणा से अर्थ होगा दशार्णनृपति का नगर वहां के अतिशय धनाढ्य नागरिकों द्वारा संचित मणिरत्नों से परिपूर्ण है इसलिए वह नगर रत्नाकर या समुद्र के समान है, यही ध्वनि है। चूँकि इस वर्णन में महाकवि द्वारा आयोजित सभी ध्वनियाँ स्वतंत्र हैं, इसलिए ध्वनियों की संसृष्टि हुई है। १ি२१ अंत में यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि प्राकृत के महाकवियों ने अपने उत्तम महाकाव्यों में ध्वनितत्त्व को आग्रहपूर्वक प्रतिष्ठित किया है। इसके लिए उन्होंने जिस काव्यभाषा को अपनाया है, उसमें पदे पदे अर्थध्वनि और भावध्वनि का चमत्कारक विनिवेश उपलब्ध हो जाता है। सच पूछिए तो प्राकृत महाकवियों की काव्यभाषा ही अपने विनियोग - वैशिष्ट्य से ध्वन्यात्मक बन गई है। चमत्कारी अर्थाभिव्यक्ति के कारण प्राकृत के प्रायः सभी महाकाव्य ध्वनिकाव्य में परिगणनीय हैं। विशेषतया सेतुबंध और द्वयाश्रय महाकाव्य कुमार वालचरिय आदि तो ध्वनितत्त्व के अनुशीलन और परिशीलन की दृष्टि से उपादेय आकरग्रन्थ हैं । वस्तुतः प्राचीन शास्त्रीय प्राकृत महाकाव्यों में प्रतिपादित ध्वनितत्त्व का अध्ययन एक स्वतंत्र शोधप्रबंध का विषय है। इस शोध निबंध में तो प्राकृत के प्रमुख शास्त्रीय महाकाव्यों में प्राप्य ध्वनित्तत्व की इंगिति मात्र प्रस्तुत की गई है। सन्दर्भ १. (क) योऽर्थः सहृदयश्लाघ्यः काव्यात्मेति व्यवस्थितः । ध्वन्यालोक, उद्योत १, कारिका - २ (ख) यत्रार्थः शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनीकृतस्वार्थी । For Private Personal Use Only টট www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy