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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासलिए आगे आएँ। स्व. नाहटा जी के उक्त कथन को आदेश वि.सं. १६८३ तक के हैं। उपलब्ध साक्ष्यों से इस गच्छ की दो मानते हुए प्रो. एम.ए. ढाँकी और प्रो. सागरमल जैन की प्रेरणा शाखाओं-धंधूकीया और विलाबंडीया का पता चलता है। और सहयोग से मैंने श्वेताम्बर श्रमणों के गच्छों के इतिहास के .
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उपकेशगच्छ१४ पूर्वमध्यकालीन और मध्यकालीन लेखन का कार्य प्रारंभ किया है। यद्यपि मैंने साहित्यिक और श्वेताम्बर परंपरा में उपकेशगच्छ का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर विभिन्न गच्छों का इतिहास
जहाँ अन्य सभी गच्छ भगवान महावीर से अपनी परंपरा जोड़ते लिखने का प्रयास किया है, किन्तु प्रस्तुत लेख में गच्छों का
हैं, वहीं उपकेशगच्छ अपना संबंध भगवान पार्श्वनाथ से जोड़ता मात्र परिचयात्मक विवरण आवश्यक होने से नाहटा जी के नाम
है। अनुश्रुति के अनुसार इस गच्छ का उत्पत्तिस्थल उपकेशपुर उक्त लेख का अनुसरण करते हुए गच्छों का संक्षिप्त विवरण
(वर्तमान ओसिया, राजस्थान) माना जाता है। परंपरानुसार इस प्रस्तुत किया गया है।
गच्छ के आदिम आचार्य रत्नप्रभसूरि ने वीर संवत् ७० में अंचलगच्छ अपरनाम विधिपक्ष वि.सं. ११५९ या ११६९ ओसवालगच्छ की स्थापना की, परन्तु किसी भी प्राचीन ऐतिहासिक में उपाध्याय विजयचन्द्र (बाद में आर्यरक्षितसूरि) द्वारा विधिपक्ष साक्ष्य से इस बात की पुष्टि नहीं होती। ऐतिहासिक साक्ष्यों के का पालन करने के कारण उनकी शिष्य-संतति विधिपक्षीय आधार पर ओसवालों की स्थापना और इस गच्छ की उत्पत्ति कहलायी।११ प्रचलित मान्यता के अनुसार इस गच्छ के अनुयायी का समय ई. सन् की आठवीं शती के पूर्व नहीं माना जा श्रावकों द्वारा मुँहपत्ती के स्थान पर वस्त्र के छोर (अंचल) से सकता। वंदन करने के कारण अंचलगच्छ नाम प्रचलित हुआ। इस उपकेशगच्छ में कक्कसरि. देवगप्तसरि और सिद्धसरि इन गच्छ में अनेक विद्वान् आचार्य और मुनिजन हुए है, परन्तु उनमे तीन पट्टधर आचार्यों के नामों की प्रायः पनरावत्ति होती रही है. से कुछ आचार्यों की कृतियाँ आज उपलब्ध होती हैं। इस गच्छ।
जिससे प्रतीत होता है कि इस गच्छ के अनुयायी श्रमण चैत्यवासी से संबद्ध बड़ी संख्या में प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं।१२ इनमें प्राचीनतम
प्राचानतम रहे होंगे। इस गच्छ में कई प्रभावक और विद्वान् आचार्य हो चुके लेख वि.सं. १२०६ का है। अपने उदय से लेकर आज तक इस
ज तक इस हैं, जिन्होंने साहित्योपासना के साथ-साथ नवीन जिनालयों के
पर शानियोगस TI TIT गच्छ की अविच्छिन्न परंपरा विद्यमान है।
निर्माण, प्राचीन जिनालयों के जीर्णोद्धार तथा जिनप्रतिमाओं की ___ आगमिकगच्छ१३ पूर्णिमापक्षीय शीलगुणसूरि और उनके प्रतिष्ठापना द्वारा पश्चिम भारत में श्वेताम्बर-श्रमण-परंपरा को जीवंत शिष्य देवभद्रसूरि द्वारा जीवदयाणं तक का शक्रस्तव, ६७ अक्षरों बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। का परमेष्ठीमन्त्र और तीनस्तुति से देववन्दन आदि बातों में आगमों
अन्यान्य गच्छों की भाँति उपकेशगच्छ से भी कई अवान्तर का समर्थन करने के कारण वि.सं. १२१४ या वि.सं. १२५० में
शाखाओं का जन्म हुआ। जैसे वि.सं. १२६६/ई. सन् १२१० में आगमिकगच्छ या त्रिस्तुतिकमत की उत्पत्ति हुई। इस गच्छ में
द्विवंदनीक शाखा, वि.सं. १३०८/ई. सन् १२५२ में खरतपा यशोभद्रसूरि, सर्वाणंदसूरि, विजयसिंहसूरि, अमरसिंहसूरि, ..
सहार, . शाखा तथा वि.सं. १४९८/ई.सन् १४४२ में खादिरीशाखा अस्तित्व हेमरत्नसूरि, अमररत्नसूरि, सोमप्रभसूरि, आनन्दप्रभसूरि आदि ।
में आई। इसके अतिरिक्त इस गच्छ की दो अन्य शाखाओंकई प्रभावक आचार्य हुए जिन्होंने साहित्यसेवा और धार्मिक
ककुदाचार्यसंतानीय और सिद्धाचार्यसंतानीय का भी पता चला क्रियाकलापों से श्वेताम्बर श्रमणसंघ को जीवन्त बनाए रखने में
है, किन्तु इनके उत्पत्तिकाल के संबंध में कोई जानकारी प्राप्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
नहीं होती। आगमिकगच्छ से संबद्ध विपुल परिणाम में आज साहित्यिक
उपकेशगच्छ के इतिहास से संबद्ध पर्याप्त संख्या में इस आर आभलेखीय साक्ष्य उपलब्ध हात है। साहित्यिक साक्ष्या के गच्छ के मनिजनों की कतियों की प्रशस्ति. मनिजनों के अध्ययनार्थ अंतर्गत इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा लिखे गए ग्रन्थों की प्रशस्तियों या उनकी प्रेरणा से प्रतिलिपि कराई गई प्राचीन ग्रन्थों की तथा कुछ पट्टावलियाँ आदि हैं। इस गच्छ से संबद्ध लगभग
लगभग दाताप्रशस्तियाँ तथा दो प्रबंध (उपकेशगच्छप्रबंध और
ही २०० प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं, जो वि.सं. १४२० से लेकर नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबंध - रचनाकाल वि.सं. १३९३/ई. सन् aroorbororaniraniramidnidiarioritoriandinidian-२०dmiriradiridroraridroidmiridioxidrionidmirarar
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