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________________ यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - विषयों का भी पर्याप्त अध्ययन किया एवं अपनी इसी अध्ययनात्मिका प्रवृत्ति के कारण अंतिम समय तक उसी में संलग्न रहे। श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। आपकी इसी प्रतिभा के कारण पूज्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी महाराज ने अपने द्वारा रचित अभिधानराजेन्द्र कोष के प्रकाशन एवं सम्पादन आदि सम्पूर्ण दायित्व तत्कालीन मुनिश्री दीपविजयजी के साथ आपको सौंपा। आपने अपने गुरुदेव पूज्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर जी महाराज के द्वारा दिये गये इस दायित्व का निष्ठापूर्वक निर्वहण करते हुए कोष के सम्पादन एवं प्रकाशन का कार्य किया। इतने बड़े कोष का सम्पादन एवं प्रकाशन सामान्य काम नहीं था, किन्तु आपने अपने परम सहयोगी मुनिश्री दीपविजय जी के साथ मिलकर अथक परिश्रम करते हुए कोष के प्रकाशन का कार्य सम्पन्न किया। इस कार्य में आपको पूर नौ वर्ष लगे। दोनों महानुभावों ने गुरु-आज्ञाको शिरोधार्य कर वि. संवत् १९६३ ई. सन् १९०७ के रतलाम चातुर्मास में प्रकाशनकार्य का शुभारंभ कर संवत् १९७२ ई. सन् १९१में पूरा कर दिया। इस कोष के सातों भागों में कुल पृष्ठ १०७४९ हैं, जिनके संशोधन मुद्रण एवं प्रकाशन में नौ वर्ष लगना स्वाभाविक है। इन दोनों शिष्यों के द्वारा गुरु-आज्ञा के परिपालन का यह अद्भुत उदाहरण है। जैनाचार्य श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का व्यक्तित्व प्रभावोत्पादक तो था ही, साथ ही वे वक्तव्य कला में भी निष्णात थे। चातुर्मास के साथ जैन दर्शन के गूढ़ सिद्धांतों का विविध प्रसंगों के साथ समन्वय कर उन्हें इस प्रकार प्रस्तुत करते कि जनमानस भावविभोर हुए बिना नहीं रहता। उनके व्याख्यानों की सर्वाधिक विशेषता यह थी कि सभी समुदायों के आबाल-वृद्ध नरनारी भारी संख्या में उपस्थित हो लाभान्वित होते एवं जीवनोपयोगी आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प लेते। आप जहाँ एक ओर अपने व्यक्तित्व के अनुरूप स्पष्ट एवं ओजस्वी वक्ता थे। वहीं आपके व्याख्यानों में उन मौलिक विचारों का समावेश रहता जिनको सहजता से ग्रहण करने में सभी को सुविधा रहती, अपनी निर्भीक एवं प्रामाणिक वक्तृता के कारण संवत् १९७२ में बागरा (राज) में आयोजित विशाल जनसमारोह के मध्य आचार्य श्री धनचन्द्र सूरिजी महाराज ने आपको 'व्याख्यानवाचस्पति' के पद से सम्मानित किया। इसी प्रकार विविध आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान होने के कारण आप किसी भी प्रकार की अप्रमाणिकता को सहन नहीं करते तथा शास्त्रार्थ-महारथी के रूप में उस अप्रामाणिकता को खुली चुनौती देने में भी आज किसी भी प्रकार का संकोच नहीं करते। संवत् १९८० में रतलाम-चातुर्मास के समय जैनाचार्य श्री सागरचंद्र सूरि के साथ इसी संदर्भ में शास्त्रार्थ के प्रस्ताव का प्रसंग आया था, जिसका विषय था- जैन श्वेताम्बर साधुओं को श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिये या पीत। बिन्दु श्री सागरानंद सूरि अपने पक्ष (पिल वस्त्र) का आगमसम्मत प्रस्तुत प्रमाणों से प्रतिपादन न कर सके एवं चातुर्मासकी अवधि पूर्ण होने के पूर्व ही अन्यत्र विहार कर गये। जबकि आपने अपने पक्ष (श्वेतवस्त्र) का आगमोक्त प्रमाणों से प्रतिपादन करने में सफलता प्राप्त की। फलस्वरूप आपको व्याख्यान वाचस्पति के साथ ही पीताम्बरविजेता के अलकरण से भी सम्मानित किया गया। आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वर जी महाराज की अभिरुचि आध्यात्मिक साधना के साथ साहित्यलेखन की ओर विशेष रही है। यही कारण है कि आपकी लेखनी ने प्रायः उन सभी संदर्भो को अपना विषय बनाया जिनसे मानवीय जीवन andardirdirdirdirdirdirdirdhina 4 4 raanaadirdirdirdirdirdirdirdhini Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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