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• यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व
परिपालन कर जनमानस में आध्यात्मिकता का प्रेरणादायी सजीव संचार एवं प्रचार-प्रसार किया तथा जो अपने उन पूर्वाचार्यों के पदचिन्हों का अक्षरशः अनुसरण करते हुए आज भी उसी प्रकार सदाशयता के साथ इस लोककल्याणकारी परम पवित्र अनुष्ठान में लगे हुए हैं, जिन महापुरुषों ने इस अभियान की ऊर्जा को नवीन शक्ति एवं निरन्तरता प्रदान की एवं जनमानस को अध्यात्म की ओर न केवल उन्मुख किया, अपितु आध्यात्मिक अभिरुचि का इस प्रकार सिञ्चन किया जिससे दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र के सूत्रों का सैद्धांतिक अवबोध हो सके, उनके प्रति कृतज्ञतापूर्वक श्रद्धावनत होना हम सबका परम कर्त्तव्य है।
यद्यपि अपने अध्यात्मपरक सिद्धांतों के आधार पर आदर्श जीवन-यापन करने वाले परमोपकार तत्त्ववेता एवं आत्मधर्म के मर्मज्ञ कई महान आचार्य तथा महापुरुष समय समय पर इस भूमि पर अवतीर्ण हुए जिन्होंने आध्यत्मिक साधनों के माध्यम से लोकमंगल के उदात्त उद्देश्यों की पूर्ति में पर्याप्त रूपेण सफलता प्राप्त की तथापि जैन दर्शन के समुदार एवं समन्ववादी स्वस्थ दृष्टिकोण को अपना लक्ष्यबिन्दु बनाकर व्यष्टि में समष्टि का दर्शन करने वाले कतिपय महापुरुष आचार्य के रूप में ऐसे भी हो गये हैं। जिनका पुण्य स्मरण आज भी हमारे लिए आध्यात्मिक प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है।
सौधर्म बृहद्तयागच्छीय त्रिस्तुतिक सिद्धांत के मर्मज्ञ परमयोगी आचार्यप्रवर श्रीमद् विजयराजेंद्र सूरीश्वर जी महाराज ऐसे ही महापुरुषों एवं आचार्य की गौरवशाली परम्परा में हुए हैं, जिन्होंने अपनी तपोमयी योगसिद्धि के साथ जैन दर्शन के मौलिक सिद्धांतों का सूक्ष्म विवेचन करते हुए जहाँ कई ग्रंथों की रचनाएँ कीं, एवं जैन दर्शन के तात्त्विक सिद्धांत प्रतिपादित किये, वहीं सात भागों में अभिधानराजेन्द्रकोष जैसे विशालकाय प्राकृत - कोष की रचना कर जो वैदुष्यपूर्ण कीर्तिमान स्थापित किया, वह अन्यत्र सुदुर्लभ है। आचार्यप्रवर द्वारा रचित यह कोष विश्व का एक मात्र विलक्षण कोष है, जिसकी प्रशंसा भारतीय विद्वानों के साथ-साथ कई विदेशी विद्वानों ने भी की है एवं अपने अभिमत में स्पष्टतः उल्लेख किया है कि ऐसे ग्रंथ की तुलना किसी भी अन्य ग्रंथ से करना नितान्त असंभव है। जिस अभिधान राजेन्द्रकोष की रचना आचार्य प्रवर श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी ने की। उसका शुभारंभ उन्होंने विक्रम संवत् १९४६ में किया तथा पूर्ण किया वि.सं. १९६० में इस प्रकार पूरे सोलह वर्ष के निरंतर प्रयास का सुपरिणाम है यह विश्वकोष जो जैन वाङमय की अमूल्य निधि है।
पूज्य श्रीमद विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी के पश्चात् त्रिस्तुतिक सौधर्म वृहद्तपागच्छीय आचार्य परम्परा में विजय श्री धनचंद्रसूरिजी एवं विजय श्री भूपेंद्रसूरिजी हुए तथा इनके पट्ट पर वि.सं. १९९५ में आचार्य के रूप में विराजित हुए श्री मद्विजययतीन्द्र सूरीश्वर जी महाराज ।
श्रीमद्यतीन्द्रसूरिजी अपने समय के उद्भट विद्वान् एवं प्रतिभा सम्पन्न आचार्य थे। आपका जन्म संवत् १९४० में कार्तिक शु. २ को हुआ तथा दीक्षा हुई संवत् १८५४ में। आपने श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी से दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् संस्कृत, प्राकृत व्याकरण, साहित्य एवं न्याय आदि के साथ विशेष रूप से जैन दर्शन का विधिवत् अध्ययन किया एवं उल्लेखनीय दक्षता प्राप्त की। आरंभ से ही आप में विद्याध्ययन एवं लेखन आदि की प्रकृति रही जिसके फलस्वरूप आपने जैन दर्शन के साथ ही अन्य
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