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________________ यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन प्रायश्चित्त के प्रकार नाम भी वे ही हैं। इसप्रकार जहाँ धवला श्वेताम्बर-परम्परा से सगति श्वेताम्बर-परम्परा में विविध प्रायश्चित्तों का उल्लेख स्थानाङ्ग, रखती है, वहाँ मूलाचार और तत्त्वार्थ कुछ भित्र हैं। सम्भवतः ऐसा निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, जीतकल्प आदि ग्रन्थों में मिलता है। प्रतीत होता है कि जीतकल्प सूत्र के उल्लेखानुसार जब अनवस्थाप्य किन्तु जहाँ समवायाङ्ग में प्रायश्चित्तों के प्रकारों का मात्र नामोल्लेख और पारांचिक इन दोनों प्रायश्चित्तों को भद्रबाहु के बाद व्युच्छिन्न मान है वहाँ निशीथ आदि ग्रन्थों में प्रायश्चित्त-योग्य अपराधों का भी विस्तृत लिया गया या दूसरे शब्दों में इन प्रायश्चित्तों का प्रचलन बन्द कर विवरण उपलब्ध होता है। प्रायश्चित्त सम्बन्धी विविध सिद्धान्तों और दिया गया५ तो इन अन्तिम दो प्रायश्चित्तों के स्वतन्त्र स्वरूप को समस्याओं का स्पष्टतापूर्वक विवेचन बृहत्कल्पभाष्य, निशीथभाष्य, लेकर मतभेद उत्पन्न हो गया और उनके नामों में अन्तर हो गया। व्यवहारभाष्य, निशीथचूर्णि, जीतकल्पभाष्य एवं जीतकल्पचूर्णि में मूलाचार के अन्त में परिहार का जो उल्लेख है वह अनवस्थाप्य उपलब्ध होता है। जहाँ तक प्रायश्चित्त के प्रकारों का प्रश्न है, इन प्रकारों से कोई भिन्न नहीं कहा जा सकता, किन्तु उसमें श्रद्धान प्रायश्चित्त का उल्लेख श्वेताम्बर-आगम स्थानाङ्ग, बृहत्कल्प, निशीथ और जीतकल्प का क्या तात्पर्य है यह न तो मूल ग्रन्थ से और न उसकी टीका में, यापनीय-ग्रन्थ मूलाचार में, दिगम्बर - ग्रन्थ जयधवला में तथा से ही स्पष्ट होता है। यह अन्तिम प्रायश्चित्त है, अत: कठोरतम होना तत्त्वार्थसूत्र एवं उसकी श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों की टीकाओं चाहिये। इसका अर्थ यह माना जा सकता है कि ऐसा अपराधी जो में मिलता है। श्रद्धान से सर्वथा रहित है अत: संघ से पूर्णतया बहिष्कृत कर दिया स्थानाङ्गसूत्र में प्रायश्चित्त के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख हुआ है, जाये किन्तु टीकाकार वसुनन्दी ने श्रद्धान का अर्थ तत्त्वरुचि एवं उसके तृतीय स्थान में ज्ञान-प्रायश्चित्त, दर्शन-प्रायश्चित्त और चारित्र- क्रोधादि-त्याग किया है। इन प्रायश्चित्तों में जो क्रम है वह सहजता प्रायश्चित्त ऐसे तीन प्रायश्चित्तों का उल्लेख हुआ है। इसी तृतीय स्थान से कठोरता की ओर है। अत: अन्त में श्रद्धान नामक सहज प्रायश्चित्त में अन्यत्र आलोचना, प्रतिक्रमण और तदुभय ऐसे प्रायश्चित्त के तीन को रखने के लिए कोई औचित्य नहीं है। वस्तुत: जिन-प्रवचन के रूपों का भी उल्लेख हुआ है। इसी आगम-ग्रन्थ में अन्यत्र छ:, प्रति श्रद्धा का समाप्त हो जाना ही वह अपराध है, जिसका दण्ड आठ और नौ प्रायश्चित्तों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ये सभी प्रायश्चित्तों मात्र संघ-बहिष्कार है। अत: ऐसे श्रमण की श्रद्धा जब तक सम्यक् के प्रकार उसके दशम स्थान में जहाँ दशविध प्रायश्चित्तों का विवरण नहीं है तब तक उसे संघ से बहिष्कृत रखना ही इस प्रायश्चित्त का दिया गया है उसमें समाहित हो जाते हैं। अत: हम उनकी स्वतन्त्र तात्पर्य है। रूप से चर्चा न करके उसमें उपलब्ध दशविध प्रायश्चित्ते की चर्चा प्रायश्चित्त का सर्वप्रथम रूप वह है जहाँ साधक को स्वयं ही करेंगे अपने मन में अपराधबोध के परिणामस्वरूप आत्मग्लानि का भाव स्थानाङ्ग, जीतकल्प और धवला में प्रायश्चित्त के निम्न दस प्रकार उत्पन्न हो। वस्तुत: आलोचना का अर्थ है- अपराध को अपराध माने गये हैं के रूप में स्वीकार कर लेना। आलोचना शब्द का अर्थ-देखना, (१) आलोचना, (२) प्रतिक्रमण, (३) उभय, (४) विवेक, अपराध को अपराध के रूप में देख लेना ही आलोचना है। (५) व्युत्सर्ग, (६) तप, (७) छेद, (८) मूल, (९) अनवस्थाप्य सामान्यतया वे अपराध जो हमारे दैनन्दिन व्यवहार में असावधानी और (१०) पारांचिक।१२ यदि हम इन इसे नामों की तुलना यापनीय (प्रमाद) या बाध्यतावश घटित होते हैं, आलोचना नामक प्रायश्चित्त ग्रन्थ मूलाचार और तत्त्वार्थसूत्र" से करते हैं तो मूलाचार में प्रथम के विषय माने गये हैं। अपने द्वारा हुए अपराध या नियमभङ्ग को आठ नाम तो जीतकल्प के समान ही हैं किन्तु जीतकल्प के अनवस्थाप्य आचार्य या गीतार्थ मुनि के समक्ष निवेदित करके उनसे उसके प्रायश्चित्त के स्थान पर परिहार और पारांचिक के स्थान पर 'श्रद्धान' का उल्लेख की याचना करना ही आलोचना है। सामान्यतया आलोचना करते हुआ है। मूलाचार श्वेताम्बर-परम्परा से भिन्न होकर तप और परिहार समय यह विचार आवश्यक है कि अपराध क्यों हुआ? उसका प्रेरक को अलग-अलग मानता है। तत्वार्थसूत्र में तो इनकी संख्या नौ मानी तत्त्व क्या है? गई है। इसमें सात नाम तो जीतकल्प के समान ही हैं किन्तु मूल के स्थान पर उपस्थापन और अनवस्थाप्य के स्थान पर परिहार का अपराध क्यों और कैसे? उल्लेख हुआ है। पारांचिक का उल्लेख तत्त्वार्थ में नहीं है। अतः अपराध या व्रतभङ्ग क्यों और किन परिस्थितियों में किया जाता वह नौ प्रायश्चित्त ही मानता है। श्वेताम्बर आचार्यों ने तप और परिहार है? इसका विवेचन हमें स्थानाङ्ग सूत्र के दशम स्थान में मिलता है। को एक माना है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में तप और परिहार दोनों स्वतन्त्र उसमें दस प्रकार की प्रतिसेवना का उल्लेख हुआ है। प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त माने गये हैं, अत: तत्त्वार्थ में परिहार का अर्थ अनवस्थाप्य तात्पर्य है गृहीत व्रत के नियमों के विरुद्ध आचरण करना अथवा भोजन ही हो सकता है। इस प्रकार तत्त्वार्थ और मूलाचार दोनों तप और आदि ग्रहण करना। वस्तुतः प्रतिसेवना का सामान्य अर्थ व्रत या नियम परिहार को अलग-अलग मानते हैं और दोनों में उनका अर्थ अनवस्थाप्य के प्रतिकूल आचरण करना ही है। यह व्रतभङ्ग क्यों, कब और किन के समान है। यद्यपि दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थ धवला १७ में स्थानाङ्ग परिस्थितियों में होता है इसे स्पष्ट करने हेतु ही स्थानाङ्ग में दस और जीतकल्प के समान ही १० प्रायश्चित्तों का वर्णन है और उनके प्रतिसेवनाओं का उल्लेख है।६।। worrorwardwordwardroiwariwaroranirdwordwordworldwid७८]-6woridwiridwordrobrowdndroidnirdwordwaranitrotakar Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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