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________________ -- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - अर्थात् भविष्य में उसे नहीं करने की प्रतिज्ञा करना ही प्रतिक्रमण है। करना प्रस्रवण प्रतिक्रमण है। (३) इत्वर प्रतिक्रमण- स्वल्पकालीन दूसरे शब्दों में आपराधिक-स्थिति से अनपराधिक-स्थिति में लौट आना (दैवसिक, रात्रिक आदि) प्रतिक्रमण करना इत्वर प्रतिक्रमण है। ही प्रतिक्रमण है। आलोचना और प्रतिक्रमण में अन्तर यह है कि (४) यावत्कथिक प्रतिक्रमण- सम्पूर्ण जीवन के लिए पाप से निवृत्त आलोचना में अपराध को पुन: सेवन न करने का निश्चय नहीं होता, होना यावत्कथिक प्रतिक्रमण है। (५) यत्किंचिन्मिथ्या प्रतिक्रमणजबकि प्रतिक्रमण में ऐसा करना आवश्यक है। सावधानीपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए भी प्रमाद अथवा असावधानी मन, वचन और काय से जो अशुभ आचरण किया जाता है, से किसी भी प्रकार का असंयमरूप आचरण हो जाने पर तत्काल उस अथवा दूसरों के द्वारा कराया जाता है और दूसरे लोगों के द्वारा आचरित भूल को स्वीकार कर लेना, "मिच्छामि दुक्कडं' ऐसा उच्चारण करना पापाचरण का जो अनुमोदन किया जाता है, इन सबकी निवृत्ति के और उसके प्रति पश्चात्ताप करना यत्किचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण है। लिए कृत-पापों की समीक्षा करना और पुन: नहीं करने की प्रतिज्ञा (६) स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण-विकार-वासना रूप कुस्वप्न देखने पर करना प्रतिक्रमण है। आचार्य हेमचन्द्र प्रतिक्रमण का निर्वचन करते उसके सम्बन्ध में पश्चात्ताप करना स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण है।२४ यह हुए लिखते हैं कि शुभयोग से अशुभ योग की ओर गये हुए अपने विवेचना प्रमुखतः साधुओं की जीवनचर्या से सम्बन्धित है। आचार्य आपको पुन: शुभयोग में लौटा लाना प्रतिक्रमण है।२२ आचार्य हरिभद्र भद्रबाहु ने जिन-जिन बातों का प्रतिक्रमण करना चाहिए इसका ने प्रतिक्रमण की व्याख्या में इन तीन अर्थों का निर्देश किया है- निर्देश आवश्यक नियुक्ति में किया है।२५ उनके अनुसार (१) मिथ्यात्व, (१) प्रमादवश स्वस्थान से परस्थान (स्वधर्म से परधर्म) में गये हुए (२) असंयम, (३) कषाय एवं (४) अप्रशस्त कायिक, वाचिक एवं साधक का पुन: स्वस्थान पर लौट आना यह प्रतिक्रमण है। अप्रमत्त मानसिक व्यापारों का प्रतिक्रमण करना चाहिए। प्रकारान्तर से आचार्य चेतना का स्व-चेतना केन्द्र में स्थित होना स्वस्थान है, जबकि चेतना ने निम्न बातों का प्रतिक्रमण करना भी अनिवार्य माना है- (१) गृहस्थ का बहिर्मुख होकर पर-वस्तु पर केन्द्रित होना पर-स्थान हैं। इस प्रकार एवं श्रमण उपासक के द्वारा निषिद्ध कार्यों का आचरण कर लेने पर, बाह्यदृष्टि से अन्तर्दृष्टि की ओर आना प्रतिक्रमण है। (२) क्षायोपशमिक (२) जिन कार्यों के करने का शास्त्रों में विधान किया गया है उन भाव से औदयिक भाव में परिणत हुआ साधक पुन: औदयिक भाव विहित कार्यों का आचरण न करने पर, (३) अश्रद्धा एवं शङ्का के से क्षायोपशमिक भाव में लौट आता है, तो यह भी प्रतिकूल गमन उपस्थित हो जाने पर और (४) असम्यक् एवं असत्य सिद्धान्तो का के कारण प्रतिक्रमण कहलाता है। (३) अशुभ आचरण से निवृत्त होकर प्रतिपादन करने पर प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए। मोक्षफलदायक शुभ आचरण में नि:शल्य भाव से पुन: प्रवृत्त होना जैन परम्परा के अनुसार जिनका प्रतिक्रमण किया जाना चाहिए, प्रतिक्रमण है। २३ उनका संक्षिप्त वर्गीकरण इस प्रकार हैआचार्य भद्रबाहु ने प्रतिक्रमण के निम्न पर्यायवाची नाम दिये (अ) २५ मिथ्यात्वों, १४ ज्ञानातिचारों और १८ पापस्थानों का हैं- (१) प्रतिक्रमण- पापाचरण के क्षेत्र से प्रतिगामी होकर प्रतिक्रमण सभी को करना चाहिए। आत्मशुद्धि के क्षेत्र में लौट आना। (२) प्रतिचरण- हिंसा, असत्य (ब) पञ्च महाव्रतो, मन, वाणी और शरीर के असंयम तथा गमन, आदि से निवृत्त होकर अहिंसा, सत्य एवं संयम के क्षेत्र में अग्रसर भाषण, याचना, ग्रहण-निक्षेप एवं मलमूत्र-विसर्जन आदि से सम्बन्धित होना। (३) परिहरण- सब प्रकार की अशुभ प्रवृत्तियों एवं दुराचरणों दोषों का प्रतिक्रमण श्रमण साधकों को करना चाहिए। का त्याग करना। (४) वारण- निषिद्ध आचरण की ओर प्रवृत्ति (स) ५ अणुव्रतों, ३ गुणव्रतों, ४ शिक्षाव्रतों में लगने वाले ७५ नहीं करना। बौद्ध-धर्म में प्रतिक्रमण के समान की जाने वाली क्रिया अतिचारों का प्रतिक्रमण व्रती श्रावकों को करना चाहिए। को प्रवारणा कहा गया है। (५) निवृत्ति- अशुभ भावों से निवृत्त (द) सल्लेखना के पाँच अतिचारों का प्रतिक्रमण उन साधकों होना। (६) निन्दा- गुरुजन, वरिष्ठजन अथवा स्वयं अपनी ही आत्मा के लिए जिन्होंने सल्लेखना व्रत ग्रहण किया हो। की साक्षी से पूर्वकृत अशुभ आचरणों को बुरा समझना तथा उसके श्रमण-प्रतिक्रमण सूत्र और श्रावक-प्रतिक्रमण सूत्र में सम्बन्धित लिये पश्चात्ताप करना। (७) गर्हा- अशुभ आचरण को गर्हित समझना, सम्भावित दोषों की विवेचना विस्तार से की गई है। इसके पीछे मूल उससे घृणा करना। (८) शुद्धि- प्रतिक्रमण आलोचना, निन्दा आदि दृष्टि यह है कि उनका पाठ करते हुए आचरित सूक्ष्मतम दोष भी के द्वारा आत्मा पर लगे दोषों से आत्मा को शुद्ध बनाता है, इसलिए विचार-पथ से ओझल न हो। उसे शुद्धि कहा गया है। प्रतिक्रमण के भेद प्रतिक्रमण किसका? साधकों के आधार पर प्रतिक्रमण के दो भेद है- (१) श्रमण -- स्थानाङ्गसूत्र में इन छह बातों के प्रतिक्रमण का निर्देश है- प्रतिक्रमण और (२) श्रावक-अतिक्रमण। कालिक आधार पर प्रतिक्रमण (१) उच्चार प्रतिक्रमण- मल आदि का विसर्जन करने के बाद ईर्या के पाँच भेद हैं- (१) दैवसिक- प्रतिदिन सायंकाल के समय पूरे (आने-जाने में हुई जीवहिंसा) का प्रतिक्रमण करना उच्चार प्रतिक्रमण दिवस में आचरित पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना करना दैवसिक है। (२) प्रस्रवण प्रतिक्रमण- पेशाब करने के बाद ईर्या का प्रतिक्रमण - प्रतिक्रमण है। (२) रात्रिक- प्रतिदिन प्रात:काल के समय सम्पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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