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पतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ शौरसेनी के सम्बन्ध में 'शेषं प्राकृतवत्' (८/०४/२८६) का अर्थ होगा शौरसेनी महाराष्ट्री से उत्पन्न हुई, जो शौरसेनी के पक्षधरों को मान्य नहीं होगा।
क्या अर्धमागधी आगम मूलतः शौरसेनी में थे?
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प्राकृत विद्या, जनवरी-मार्च ९६ के सम्पादकीय में डॉ. सुदीप जैन ने प्रो. टॉटिया को यह कहते हुए प्रस्तुत किया है कि "श्वेताम्बर जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृतमय ही था, जिसका स्वरूप क्रमशः अर्धमागधी के रूप में बदल गया"। इस सन्दर्भ में हमारा प्रश्न यह है कि यदि प्राचीन श्वेताम्बर आगम साहित्य शौरसेनी प्राकृत में तो फिर वर्तमान उपलब्ध पाठों में कहीं भी शौरसेनी की 'द' श्रुति का प्रभाव क्यों नहीं दिखाई देता। इसके विपरीत हम यह पाते हैं कि दिगम्बर परम्परा में मान्य शौरसेनी आगम साहित्य पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत का व्यापक प्रभाव है, इस तथ्य की सप्रमाण चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा के शीर्षस्थ विद्वान् प्रो. ए. एन. उपाध्ये का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि प्रवचनसार की भाषा पर श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा का पर्याप्त प्रभाव है और अर्धमागधी भाषा की अनेक विशेषताएँ उत्तराधिकार के रूप में इस ग्रन्थ को प्राप्त हुई हैं।
इसमें स्वर परिवर्तन, मध्यवर्ती व्यञ्जनों के परिवर्तन, 'य' श्रुति इत्यादि अर्धमागधी भाषा के समान ही मिलते हैं। दूसरे वरिष्ठ दिगम्बर विद्वान् प्रो. खडबडी का कहना है कि षट्खण्डागम की भाषा शुद्ध शौरसेनी नहीं है। इस प्रकार जहाँ एक ओर दिगम्बर विद्वान् इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर रहे हैं कि दिगम्बर आगमों पर श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा का प्रभाव है वहाँ यह कैसे माना जा सकता है कि क्षेताम्बर आगम शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए। अपितु इससे तो यही फलित होता है कि अर्धमागधी आगम ही शौरसेनी में रूपान्तरित हुए हैं। पुनः अर्धमागधी भाषा के स्वरूप के सम्बन्ध में दिगम्बर विद्वानों में जो भ्रांति प्रचलित रही है उसका स्पष्टीकरण भी आवश्यक है । सम्भवतः ये विद्वान् अर्धमागधी और महाराष्ट्री के अन्तर को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाये हैं तथा सामान्यतः अर्धमागधी और महाराष्ट्री को पर्यायवाची मानकर ही चलते रहे हैं। यही कारण है कि डॉ. ए. एन. उपाध्ये जैसे विद्वान् भी 'य' श्रुति को अर्धमागधी का लक्षण बताते है। जबकि वह मूलतः महाराष्ट्री प्राकृत का लक्षण है, न कि अर्धमागधी का । अर्धमागधी तो 'त' श्रुति प्रधान है।
यह सत्य है कि श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा में कालक्रम में परिवर्तन हुए हैं और उस पर महाराष्ट्री प्राकृत की 'य' श्रुति का प्रभाव आया है, किन्तु यह मानना पूर्णत: मिथ्या है कि श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरण हुआ है। वास्तविकता यह है कि अर्धमागधी आगम ही माधुरी और वलभी वाचनाओं के समय क्रमशः शौरसेनी और महाराष्ट्री से प्रभावित
हुए हैं।
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જૈન સાગત દ્યું ર્ગાદ
टॉटिया जी जैसा विद्वान् इस प्रकार की मिथ्या धारणा को प्रतिपादित करे कि शौरसेनी आगम ही अर्धमागधी में रूपान्तरित हुएयह विश्वसनीय नहीं लगता है। यदि टॉटिया जी का यह कथन कि पालि त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम मूलतः शौरसेनी में थे और फिर पालि और अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए' सत्य है, तो उन्हें या सुदीप जी को इसका प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिए ।
वस्तुतः जब किसी बोली को साहित्यिक भाषा का रूप दिया जाता है तो एकरूपता के लिये नियम या व्यवस्था आवश्यक होती है और यही नियम भाषा का व्याकरण बनाते हैं। विभिन्न प्राकृतों को जब साहित्यिक भाषा का रूप दिया गया तो उनके लिये भी व्याकरण के नियम आवश्यक हुए और ये व्याकरण के नियम मुख्यतः संस्कृत से गृहीत किये गये। जब व्याकरणशास्त्र में किसी भाषा की प्रकृति बताई जाती है तब वहाँ तात्पर्य होता है कि उस भाषा के व्याकरण के नियमों का मूल आदर्श किस भाषा के शब्द रूप हैं? उदाहरण के रूप में जब हम शौरसेनी के व्याकरण की चर्चा करते हैं तो हम यह मानते हैं कि उसके व्याकरण का आदर्श अपनी कुछ विशेषताओं को छोड़कर जिसकी चर्चा उस भाषा के व्याकरण में होती है, संस्कृत के शब्द रूप हैं।
किसी भी भाषा का जन्म बोली के रूप में पहले होता है फिर बोली से साहित्यिक भाषा का जन्म होता है। जब साहित्यिक भाषा बनती है तब उसके लिये व्याकरण के नियम बनाये जाते हैं, ये व्याकरण के नियम जिस भाषा के शब्दरूपों के आधार पर उस भाषा के शब्दरूपों को समझाते हैं वही भाषा की किसी प्रकृति कहलाते है। यह सत्य है कि बोली का जन्म पहले होता है, व्याकरण उसके बाद बनता है। शौरसेनी अथवा प्राकृत की प्रकृति को संस्कृत मानने का अर्थ इतना ही है कि इन भाषाओं के जो भी व्याकरण बने है वे संस्कृत शब्द रूपों के आधार पर बने हैं। यहाँ पर यह भी ज्ञातव्य है कि प्राकृत का कोई भी व्याकरण प्राकृत के लिखने या बोलने वालों के लिये नहीं बनाया गया, अपितु उनके लिये बनाया गया जो संस्कृत में लिखते या बोलते थे। यदि हमें किसी संस्कृत के जानकार व्यक्ति को प्राकृत के शब्द या शब्दरूपों को समझाना हो तो हमें उसका आधार संस्कृत को ही बनाना होगा और उसी के आधार पर यह समझाना होगा कि संस्कृत के किसी शब्द से प्राकृत का कौन सा शब्दरूप कैसे निष्पत्र हुआ है इसलिये जो भी प्राकृत व्याकरण निर्मित किये गये अपरिहार्य रूप से वे संस्कृत शब्दों या शब्दरूपों को आधार मानकर प्राकृत शब्द या शब्दरूपों की व्याख्या करते हैं । संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहने का इतना ही तात्पर्य है । इसी प्रकार जब मागधी, पैशाची या अपभ्रंश की 'प्रकृति' शौरसेनी को कहा जाता है तो उसका तात्पर्य होता है, प्रस्तुत व्याकरण के नियमों में इन भाषाओं के शब्दरूपों को शौरसेनी शब्दों का आधार मानकर समझाया गया है। 'प्राकृतप्रकाश' की टीका में वररुचि ने स्पष्टतः लिखा है— शौरसेन्या ये शब्दास्तेषां प्रकृति संस्कृतम् (१२/२) अर्थात् शौरसेनी के जो शब्द है उनकी प्रकृति या आधार संस्कृत शब्द हैं।
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