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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - ४. व्यक्ति और राष्ट्र, ५. व्यक्ति और विश्व। इन सम्बन्धों की विषमता ही होगा। के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती है। सामान्यतया राग-द्वेष दूसरे इस सामाजिक सम्बन्ध में व्यक्ति का अहं-भाव भी बहुत का सहगामी होता है। जब तक सम्बन्ध राग-द्वेष के आधार पर खड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना होता है, तब तक इन सम्बन्धों में विषमता स्वाभाविक रूप से उपस्थित इसके प्रमुख तत्त्व हैं। इनके कारण भी सामाजिक जीवन में विषमता रहती है। जब राग का तत्त्व द्वेष का सहगामी होकर काम करने लगता उत्पन्न होती है। शासक और शासित अथवा जातिभेद एवं रंगभेद आदि है तो पारस्परिक सम्बन्धों में संघर्ष और टकराहट प्रारम्भ हो जाती की श्रेष्ठता के मूल में यही कारण है। वर्तमान युग में बड़े राष्ट्रों में है। राग के कारण 'मेरा' या ममत्व का भाव उत्पन्न होता है। मेरे सम्बन्धी, जो अपने प्रभावक क्षेत्र बनाने की प्रवृत्ति है, उसके मूल में भी अपने मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा राष्ट्र, ये विचार विकसित होते हैं। राष्ट्रीय अहं की पुष्टि का प्रयत्न है। स्वतंत्रता के अपहार का प्रश्न परिणामस्वरूप भाई-भतीजावाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद । इसी स्थिति में होता है। जब व्यक्ति में आधिपत्य की वृत्ति या शासन का जन्म होता है। आज के हमारे सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों में ये की भावना होती है तो वह दूसरे के अधिकारों का हनन करता है। ही तत्त्व सबसे अधिक बाधक हैं। ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, जैन आचार-दर्शन अहं के प्रत्यय के विगलन के द्वारा सामाजिक जीवन साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठने नहीं देते हैं। यही में परतंत्रता को समाप्त करता है। दूसरी ओर जैन-दर्शन का अहिंसा आज की सामाजिक-विषमता के मूल कारण हैं।
सिद्धांत भी सभी प्राणियों के समान अधिकारों को स्वीकार करता है। अनैतिकता का मूल 'स्व' की संकुचित सीमा है। व्यक्ति जिसे । अधिकारों का हनन एक प्रकार की हिंसा है। अत: अहिंसा का सिद्धांत अपना मानता है, उसके हित की कामना करता है और जिसे पराया। स्वतंत्रता के साथ जुड़ा हुआ है। जैन एवं बौद्ध आचार-दर्शन जहाँ मानता है उसके हित की उपेक्षा करता है। सामाजिक जीवन में शोषण, एक ओर अहिंसा के सिद्धांत के आधार पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का क्रूर-व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किये जाते है, जिन्हें समर्थन करते हैं, वहीं दूसरी ओर वर्णभेद, जातिभेद एवं ऊँच-नीच हम अपना नहीं मानते हैं। यद्यपि यह बड़ा कठिन कार्य है। हम अपनी की भावना को समाप्त करते हैं। रागात्मकता या ममत्व वृत्ति का पूर्णतया विसर्जन किये बिना अपेक्षित यदि हम सामाजिक सम्बन्धों में उत्पन्न होने वाली विषमता के नैतिक एवं सामाजिक जीवन का विकास नहीं कर सकते। व्यक्ति का कारणों का विश्लेषण करें तो यह पाते हैं कि उसके मूल में रागात्मकता 'स्व' चाहे वह व्यक्तिगत-जीवन या पारिवारिक-जीवन या राष्ट्र की सीमा ही है। यही राग एक ओर अपने और पराये के भेद को उत्पन्न कर तक विस्तृत हो, हमें स्वार्थ-भावना से ऊपर नहीं उठने देता। स्वार्थवृत्ति सामाजिक सम्बन्धों को अशुद्ध बनाता है तथा दूसरी ओर अहं भाव चाहे वह परिवार के प्रति हो या राष्ट्र के प्रति, समान रूप से नैतिकता का प्रत्यय उत्पन्न कर सामाजिक जीवन में ऊँच नीच की भावनाओं एवं सामाजिकता की विरोधी ही सिद्ध होती है। उसके होते हुए सच्चा का निर्माण करता है। इस प्रकार राग का तत्त्व ही मान के रूप में नैतिक एवं सामाजिक जीवन फलित नहीं हो सकता। मुनि नथमलजी एक दूसरी दिशा ग्रहण कर लेता है जो सामाजिक विषमता को उत्पन्न लिखते हैं कि 'परिवार के प्रति ममत्व का सघन रूप जैसे जाति या करता है। यही राग की वृत्ति ही संग्रह (लोभ) और कपट की भावनाओं राष्ट्र के प्रति बरती जाने वाली अनैतिकता का नियमन नहीं करता, को भी विकसित करती है। इस प्रकार सामाजिक जीवन में विषमता वैसे ही जाति या राष्ट्र के प्रति ममत्व अन्ताराष्ट्रीय अनैतिकता का के उत्पन्न होने के चार मूलभूत कारण होते हैं- १. संग्रह (लोभ) नियामक नहीं होता। मुझे लगता है कि राष्ट्रीय अनैतिकता की अपेक्षा २. आवेश (क्रोध) ३. गर्व (बड़ा मानना) और ४. माया (छिपाना)। अन्ताराष्ट्रीय अनैतिकता कहीं अधिक है। जिन राष्ट्रों में व्यावहारिक जिन्हें चार कषाय कहा जाता है। ये ही चारों अलग-अलग रूप में सच्चाई है, प्रामाणिकता है, वे भी अन्ताराष्ट्रीय क्षेत्र में सत्य-निष्ठ और सामाजिक जीवन में विषमता, संघर्ष एवं अशान्ति के कारण बनते प्रामाणिक नहीं हैं। १८ इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति का जीवन हैं। १. संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, अप्रमाणिकता, जब तक राग या ममत्व से ऊपर नहीं उठता, तब तक नैतिकता का स्वार्थपूर्ण-व्यवहार, क्रूर-व्यवहार, विश्वासघात आदि विकसित होते हैं। सद्भाव सम्भव ही नहीं होता। रागयुक्त नैतिकता, चाहे उसका आधार २. आवेश की मनोवृत्ति के कारण संघर्ष, युद्ध, आक्रमण एवं हत्याएँ राष्ट्र ही क्यों न हो, सच्चे अर्थों में नैतिक नहीं हो सकती। सच्चा आदि होते हैं। ३. गर्व की मनोवृत्ति के कारण घृणा, अमैत्रीपूर्ण व्यवहार नैतिक जीवन वीतराग अवस्था में ही सम्भव हो सकता है और जैन और क्रूर व्यवहार होता है। ४. इसी प्रकार माया की मनोवृत्ति के कारण आचार-दर्शन इसी वीतराग जीवन-दृष्टि को ही अपनी नैतिक साधना अविश्वास एवं अमैत्रीपूर्ण व्यवहार उत्पन्न होता है।१९ इस प्रकार हम का आधार बनाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह सामाजिक देखते हैं कि जैन-दर्शन में जिन्हें चार कषाय कहा जाता है, उन्हीं जीवन के लिए एक वास्तविक आधार प्रस्तुत करता है। यही एक के कारण सारा सामाजिक जीवन दूषित होता है। जैन-दर्शन इन्हीं ऐसा आधार है जिस पर सामाजिक नैतिकता को खड़ा किया जा सकता कषायों के निरोध को अपनी नैतिक साधना का आधार बनाता है। है और सामाजिक जीवन के वैषम्यों को समाप्त किया जा सकता है। अतः यह कहना उचित ही होगा कि जैन-दर्शन अपने साधना-मार्ग सराग नैतिकता कभी भी सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण नहीं के रूप में सामाजिक विषमताओं को समाप्त कर, सामाजिक-समत्व कर सकती है। स्वार्थों के आधार पर खड़ा सामाजिक जीवन अस्थायी की स्थापना का प्रयत्न करता है।
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