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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - २. आर्थिक वैषम्य-आर्थिक वैषम्य व्यक्ति और भौतिक जगत नहीं करता है। अत: आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य में स्वत: के सम्बन्धों से उत्पन्न हुई विषमता है। चेतना का जब भौतिक जगत ही त्याग की वृत्ति का उदय हो और वह स्वेच्छा से ही सम्पत्ति के से सम्बन्ध होता है तो उसे अनेक वस्तएँ अपने प्राणमय जीवन के विसर्जन की दिशा में आगे आवे। भारतीय परंपरा और विशेषकर जैनलिए आवश्यक प्रतीत होती हैं। यही आवश्यकता जब आसक्ति में परंपरा न केवल सम्पत्ति के विसर्जन की बात करती है वरन् उसके बदल जाती है तो एक ओर संग्रह होता जाता है, दूसरी ओर संग्रह सम-वितरण पर भी जोर देती है। हमारे प्राचीन साहित्य में दान के की लालसा बढ़ती जाती है, इसीसे सामाजिक जीवन में आर्थिक विषमता स्थान पर संविभाग शब्द का ही अधिक प्रयोग हुआ है। जो यह बताया के बीज का वपन होता है। जैसे-जैसे एक ओर संग्रह बढ़ता है, दूसरी है कि जो कुछ हमारे पास है, उसका समविभावजन करना है। महावीर ओर गरीबी बढ़ती है और परिणामस्वरूप आर्थिक वैषम्य बढ़ता जाता का यह उद्घोष कि 'असंविभागी णहु तस्स मोक्खो' स्पष्ट बताता है है। आर्थिक वैषम्य के मूल में संग्रह-भावना ही अधिक है। कहा यह कि जैन आचार-दर्शन आर्थिक विषमता के निराकरण के लिये समवितरण जाता है कि अभाव के कारण संग्रह की चाह उत्पन्न होती है लेकिन की धारणा को प्रतिपादित करता है। जैन-दर्शन के इन सिद्धांतों को वस्तुस्थिति कुछ और ही है। स्वाभाविक अभाव की पूर्ति सम्भव है यदि उन्हें युगीन सन्दर्भो में नवीन दृष्टि से उपस्थित किया जाय तो और शायद विज्ञान हमें इस दिशा में सहयोग दे सकता है लेकिन समाज की आर्थिक समस्याओं का निराकरण खोजा जा सकता है। कृत्रिम अभाव की पूर्ति सम्भव नहीं। उपाध्याय अमरमुनि जी लिखते वर्तमान युग में भ्रष्टाचार के रूप में समाज के आर्थिक क्षेत्र में हैं कि “गरीबी स्वयं में कोई समस्या नहीं, किन्तु पहाड़ों की असीम जो बुराई पनप रही है, उसके मूल में भी या तो व्यक्ति की संग्रहेच्छा ऊँचाईयों ने इस धरती पर जगह-जगह गड्डे पैदा कर दिये हैं। पहाड़ है या भोगेच्छा। भ्रष्टाचार केवल अभावजनित बीमारी नहीं है, वरन् टूटेंगे, तो गड्ढे अपने आप भर जायेंगे, सम्पत्ति का विसर्जन होगा, वह एक मानसिक बीमारी है, जिसके मूल में संग्रहेच्छा एवं भोगेच्छा तो गरीबी अपने आप दूर हट जाएगी।''२० वस्तुत: आवश्यकता इस के कीटाणु हैं। वस्तुत: वह आवश्यकताओं के कारण नहीं वरन् तृष्णा बात की है कि व्यक्ति में परिग्रह के विसर्जन की भावना उद्भूत हो। के कारण उत्पन्न होती है। आवश्यकताओं का निराकरण पदार्थों को परिग्रह के विसर्जन से ही आर्थिक वैषम्य समाप्त किया जा सकता। उपलब्ध करके किया जा सकता है, लेकिन इस तृष्णा का निराकरण है। जब तक संग्रह की वृत्ति समाप्त नहीं होती, आर्थिक-समता नहीं पदार्थों के द्वारा संभव नहीं है। इसलिए जैन-दर्शन ने अनासक्ति की आ सकती। वृत्ति को नैतिक जीवन में प्रमुख स्थान दिया है। तृष्णाजनित विकृतियाँ आर्थिक-वैषम्य का निराकरण असंग्रह की वृत्ति से ही सम्भव । केवल अनासक्ति द्वारा ही दूर की जा सकती हैं। हमारे वर्तमान युग है और जैन-दर्शन अपने अपरिग्रह के सिद्धांत के द्वारा इस आर्थिक की प्रमुख कठिनाई यह नहीं है कि हमें सामान्य जीवन जीने के साधन वैषम्य के निराकरण का प्रयास करता है। जैन आचार- दर्शन में गृहस्थ उपलब्ध नहीं हैं अथवा उनका अभाव है, वरन् कठिनाई यह है कि जीवन के लिये भी जिस परिग्रह एवं उपभोग-परिभोग के सीमांकन आज का मानव तृष्णा से इतना अधिक ग्रसित है कि वह एक अच्छा का विधान किया गया है, वह आर्थिक वैषम्य के निराकरण का एक सुखद एवं शांतिपूर्ण जीवन नहीं जी सकता है। मनुष्य की वासनाएँ प्रमुख साधन हो सकता है। आज हम जिस समाजवाद एवं साम्यवाद । ही उसे अच्छे जीवन जीने में बाधक हैं। यदि किसी सीमा तक हम की चर्चा करते हैं, उसका दिशा-संकेत महावीर ने अपने व्रत-विधान यह भी मान लें कि अभाव के कारण आर्थिक-भ्रष्टाचार का जन्म होता में किया था। जैन-दर्शन सम्पदा के उत्पादन पर नहीं. अपित उसके है तो जहाँ तक कृत्रिम अभाव का प्रश्न है वह कुल व्यक्तियों के द्वारा अपरिमित संग्रह और उपभोग पर नियंत्रण लगाता है। किये गये अवैध संग्रह का परिणाम है। किन्तु जैन नीति-दर्शन ने आर्थिक वैषम्य का निराकरण अनासक्ति और अपरिग्रह की साधना गृहस्थ साधक के अनर्थदण्ड-विरमण व्रत में उपभोग के पदार्थो के के द्वारा ही संभव है। यदि हम सामाजिक जीवन में आर्थिक समानता अनावश्यक संग्रह को निषिद्ध ठहराया है। यदि अभाव वास्तविक हो की बात करना चाहते हैं तो हमें व्यक्तिगत उपभोग एवं सम्पत्ति की तो उसे उपभोग का नियंत्रण करके दूर किया जा सकता है जिसके सीमा का निर्धारण करना ही होगा। परिग्रह का विसर्जन ही आर्थिक लिए उपभोग-परिभोग मर्यादा नामक व्रत का विधान है। इस प्रकार जीवन में समत्व का सजन कर सकता है। जैन-दर्शन का अपरिग्रह जैन-दर्शन परिग्रह और उपभोग के परिसीमन के द्वारा समाज में व्याप्त सिद्धांत इस संबंध में पर्याप्त सिद्ध होता है। वर्तमान युग में मार्क्स आर्थिक विषमता की समाप्ति का सूत्र प्रस्तुत करता है। ने आर्थिक वैषम्य को दूर करने का जो सिद्धांत साम्यवादी समाज ३. वैचारिक वैषम्य-विभिन्न वाद और उनके कारण उत्पन्न की रचना के रूप में प्रस्तत किया. वह यद्यपि आर्थिक विषमताओं वैचारिक-संघर्ष भी सामाजिक जीवन का एक बड़ा अभिशाप है। वर्तमान के निराकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है, लेकिन उसकी मुलभूत युग में राष्ट्रों के जो संघर्ष हैं, उनके मूल में आर्थिक और राजनैतिक कमी यही है कि वह मानव-समाज पर ऊपर से थोपा जाता है, उसके प्रश्न इतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितनी कि वैचारिक साम्राज्यवाद की अन्त: से सहज उभारा नहीं जाता है। जिस प्रकार बाह्य दबाबों से स्थापना। वर्तमान युग में न तो राजनैतिक अधिकार लिप्सा से उत्पन्न वास्तविक नैतिकता प्रकट नहीं होती, उसी प्रकार केवल कानन के साम्राज्यवाद की भावना पाई जाती है और न आर्थिक साम्राज्यों की बल पर लाया गया आर्थिक साम्य सच्चे आर्थिक समत्व का प्रकटन स्थापना का प्रश्न ही महत्त्वूपर्ण है, वरन् वर्तमान युग में बड़े राष्ट्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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