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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - आत्महित स्वार्थ ही नहीं है - यहाँ हमें यह ध्यान रखना चाहिए था कि आपकी भक्ति करने वाले तथा वृद्ध, ग्लान एवं रोगी की सेवा कि जैन-धर्म का यह आत्महित स्वार्थवाद नहीं है। आत्म-काम वस्तुतः करने वाले में कौन श्रेष्ठ है? तो महावीर का उत्तर था कि सेवा करने निष्काम होता है, क्योंकि उसकी कोई कामना नहीं होता है, अतः वाला ही श्रेष्ठ है। जैन-समाज के द्वारा आज भी जन-सेवा और प्राणी-सेवा उसका स्वार्थ भी नहीं होता है। आत्मार्थी कोई भौतिक उपलब्धि नहीं के जो अनेक कार्य किये जा रहे हैं, वे इसके प्रतीक हैं। फिर भी चाहता है। वह तो उसका विसर्जन करता है। स्वार्थी तो वह है जो यह एक ऐसा स्तर है जहाँ हितों का संघर्ष होता है। एक का हित यह चाहता है कि सभी उसकी भौतिक उपलब्धियों के लिये कार्य करें। दूसरे के अहित का कारण बन जाता है। अतः द्रव्य-लोकहित एकान्त स्वार्थ और आत्मकल्याण में मौलिक अन्तर यह है कि स्वार्थ की साधना रूप से आचरणीय भी नहीं कहा जा सकता है। यह सापेक्ष नैतिकता में राग और द्वेष की वृत्तियाँ काम करती हैं। जबकि आत्मकल्याण का क्षेत्र है। भौतिक स्तर पर स्वहित की पूर्णतया उपेक्षा भी नहीं की का प्रारम्भ ही राग-द्वेष की वृत्तियों की क्षणिकता से होता है। राग-द्वेष जा सकती है। यहाँ तो स्वहित और परहित में उचित समन्वय बनाना, से युक्त होकर आत्मकल्याण की सम्भावना ही नहीं रहती। यथार्थ यही अपेक्षित है। पाश्चात्य नैतिक विचारणा के परिष्कारित स्वार्थवाद, आत्महित में रागद्वेष का अभाव है। स्वार्थ और परार्थ में संघर्ष की बौद्धिक परार्थवाद और सामान्य शुभतावाद का विचार-क्षेत्र लोकहित सम्भावना भी तभी तक है जबतक उनमें कहीं राग-द्वेष की वृत्ति निहित का यह भौतिक स्वरूप ही है। हो। रागुदि भाव या स्वहित की वृत्ति से किया जानेवाला परार्थ भी २. भाव-लोकहित - यह लोकहित भौतिक स्तर से ऊपर स्थित सच्चा लोकहित नहीं है, वह तो स्वार्थ ही है। जिस प्रकार शासन है, यहाँ पर लोकहित के जो साधन हैं वे ज्ञानात्मक या चैतसिक होते के द्वारा नियुक्त एवं प्रेरित समाज-कल्याण-अधिकारी वस्तुतः लोकहित हैं। इस स्तर पर परार्थ और स्वार्थ में संघर्ष की सम्भावना अल्पतम का कर्ता नहीं है, वह तो वेतन के लिए लोकहित करता है। उसी होती है। मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ की भावनाएँ इस स्तर प्रकार राग से प्रेरित होकर लोकहित करने वाला भी सच्चे अर्थों में की अभिव्यक्ति करती हैं। लोकहित का कर्ता नहीं है, उसके लोकहित के प्रयत्न राग की अभिव्यक्ति, ३.पारमार्थिक लोकहित-यह लोकहित का सर्वोच्च स्तर है, प्रतिष्ठा की रक्षा, यश: अर्जन की भावना या भावी-लाभ की प्राप्ति जहाँ स्वहित और परहित में कोई संघर्ष नहीं रहता, द्वैत नहीं रहता। के हेतु ही होते हैं। ऐसा परार्थ वस्तुतः स्वार्थ ही है। सच्चा आत्महित यहाँ पर लोकहित का रूप होता है- यथार्थ जीवनदृष्टि के सम्बन्ध और सच्चा लोकहित, राग-द्वेष से शून्य अनासक्ति की भूमि पर प्रस्फुटित में मार्गदर्शन। यहाँ इसका रूप स्वयं अहित नहीं करना और अहित होता है लेकिन उस अवस्था में न तो अपना रहता है न पराया क्योंकि करने वाले का हृदय-परिवर्तन कर उसे सामाजिक अहित से विमुख जहाँ राग है वहीं 'मेरा है' और जहाँ मेरा हैं वहीं पराया है। राग की करना है। शून्यता होने पर अपने और पराये का विभेद ही समाप्त हो जाता है। ऐसी राग-शून्यता की भूमि पर स्थित होकर किया जाने वाला युगीन सामाजिक परिस्थितियों में जैन नीतिदर्शन का योगदान आत्महित भी लोकहित होता है और लोकहित आत्महित होता है। जैन आचार-दर्शन ने न केवल अपने युग की समस्याओं का दोनों में कोई संघर्ष नहीं है, कोई द्वैत नहीं है। उस दशाने तो सर्वत्र समाधान किया है वरन् वह वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान आत्म-दृष्टि होती है जिसमें न कोई अपना है, न कोई पराया है। में भी पूर्णतया सक्षम है। वस्तुस्थिति यह है कि चाहे प्राचीन युग हो स्वार्थ-परार्थ जैसी समस्या यहाँ रहती ही नहीं है। या वर्तमान युग, मानव-जीवन की समस्यायें सभी युगों में लगभग जैन- विचारणा के अनुसार स्वार्थ और परार्थ के मध्य सभी समान रही हैं। मानव-जीवन की समस्याएँ विषमता-जनित है। वस्तुतः अवस्थाओं में संघर्ष रहे, यह आवश्यक नहीं। व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिक विषमता ही समस्या है और समता ही समाधान हैं। ये विषमताएँ अनेक जीवन से आध्यात्मिक जीवन की ओर ऊपर उठता जाता है, वैसे-वैसे रूपों में अभिव्यक्त होती हैं। प्रमुख रूप से वर्तमान मानव-जीवन की स्वार्थ एवं परार्थ का संघर्ष भी समाप्त होता जाता है। जैन विचारकों विषमताएँ निम्न हैं- १. सामाजिक वैषम्य, २. आर्थिक वैषम्य, ३. ने परार्थ या लोकहित के तीन स्तर माने हैं। वैचारिक वैषम्य और ४. मानसिक वैषम्य। अब हमें विचार यह करना . १.द्रव्य-लोकहित, २.भाव लोकहित और ३.पारमार्थिक लोकहिता है कि क्या जैन आचार-दर्शन इन विषमताओं का निराकरण कर १.द्रव्य-लोकहिता- यह लोकहित का भोतिक स्तर है। भौतिक समत्व का संस्थापन करने में समर्थ है? नीचे हम प्रत्येक प्रकार की उपादानों जैसे भोजन, वस्त्र, आवास आदि तथा शारीरिक सेवा के विषमताओं के कारणों का विश्लेषण और जैन-दर्शन द्वारा प्रस्तुत उनके द्वारा लोकसेवा करना द्रव्य लोकहित है। यह दान और सेवा का क्षेत्र समाधानों पर विचार करेंगे। है। पुण्य के नव प्रकारों में आहारदान, वस्त्रदान, औषधिदान आदि १. सामाजिक विषमता- व्यक्ति को चेतन जगत् के अन्य का उल्लेख यह बताता है कि जैनदर्शन दान और सेवा के दर्शन को प्राणियों के साथ जीवन जीना होता है। यह सामुदायिक जीवन है। स्वीकार करता है। तीर्थंकर द्वारा दीक्षा के पूर्व दिया जाने वाला दान सामुदायिक जीवन का आधार सम्बन्ध है और नैतिकता उस सम्बन्धों जैन-दर्शन में सामाजिक सेवा और सहयोग का क्या स्थान है, इसे की शुद्धि का विज्ञान है। पारस्परिक सम्बन्ध निम्न प्रकार के हैं स्पष्ट कर देता है। मात्र यहीं नहीं, महावीर से जब यह पूछा गया १. व्यक्ति और परिवार, २. व्यक्ति और जाति, ३. व्यक्ति और समाज, anoraridwardrobrowondiwonilonorambromidnironiroranira[१०]nditorinironirodoodnirandirduirirdwardrobordoranirand Jain Education International . 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SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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