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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म(१) क्षणिक आवेश (२) अज्ञानता (३) बुरी संगित (४) उसका उदाहरण अन्यत्र मिलना कठिन है धर्मपत्नी के संबंध में पति के परस्त्रीगमन को देखकर उसकी पत्नी भी पथभ्रष्ट होती है कहा गया है कि वह मंत्री की भांति (५) विकृत साहित्य का पढ़ना (६) धनमद के कारण, (७) सेवा करती है। धार्मिक कार्यों में पति को प्रेरणा प्रदान करती है। धार्मिक अंधविश्वास (८) सहशिक्षा (९) अश्लील चलचित्र, पृथ्वी की भाँति क्षमाशील होती है। माता के समान स्नेह से
ह और (११) मादक पदार्थों का सेवन। भोजन कराती है। ये सब गुण पर स्त्री में कहाँ मिलते हैं? यहाँ एक बात स्पष्ट करना उचित प्रतीत होता है वह यह पर स्त्री से संबंध रखने में पुरुष के प्राण भी संकट में पड़ कि जिस प्रकार एक पुरुष के लिए पर स्त्री सेवन व्यसन है, ठीक जाते हैं। मानसिक अशांति बनी रहती है। मनुष्य सदैव संदेहशील उसी प्रकार एक स्त्री के लिए पर पुरुष सेवन भी व्यसन है, बना रहता है। महर्षि वाल्मीकि के अनुसार पर स्त्री से अवैध निंदनीय है।
संबंध रखने जैसा कोई पाप नहीं है। ___यह बात सत्य है कि गृहस्थ कामवासना का पूर्ण रूप से परदाराभिमशत्तुि नान्यतः पापतरं महत्। वाल्मीकि रामायण३३९/३० परित्याग नहीं कर सकता। कामवासना को नियंत्रित करने के
आचार्य मनु ने भी इसे (परस्त्री सेवन को) निकृष्ट कार्य लिए मनीषियों ने विवाह संस्कार का विधान किया है। विवाह
माना है। समाज की नैतिक शांति, पारिवारिक प्रेम और प्रतिष्ठा को सुरक्षित
नहीद्दशमनायुतयं लोके किंचित् दृश्यते। रखने का एक उपाय है। गृहस्थ को चाहिये कि वह अपनी
याद्दशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम्। मनुस्मृति।। ४/३४१ विवाहित पत्नी में ही संतोष करके शेष सभी पर स्त्री आदि के साथ मैथुन विधि का परित्याग करे। उपासक दशांग में भी यही
महाकवि कालिदास ने परस्त्रीसेवन को अनायों का कार्य कहा गया है।
कहा हैसदार संतोषिलिए अवषिं सव्व मेहुण विहिं पच्चक्खाई।
अनार्य:- परदारव्यवहारः अभिज्ञान शाकुन्तल। इन
उदाहरणों को प्रस्तुत करने का उद्देश्य यही है कि परस्त्रीसेवन को पर स्त्री सेवन सभी दृष्टि से गलत है, हानिप्रद है। यह
सभी ने अनुचित बताया है। अतः इसका परित्याग करना ही अवैध पापाचार है। धर्मपत्नी को छोड़कर जिस भी स्त्री के साथ
उचित है। यदि इस ओर दृष्टि ही न जाये इसका विचार ही नहीं संबंध बनाया जाता है कि वह निंदनीय तो है ही समाज में
किया जाये और स्व धर्म पत्नी में ही संतोष रखकर अपने प्रतिष्ठा के प्रतिकूल भी है। फिर धर्मपत्नी जिस प्रेम लगन और
कर्तव्य की पूर्ति करते हुए धर्माराधना की जाये तो ऐसा पापाचारों निष्ठा से अपने पति का साथ निभाती है, उसका पर स्त्री में से बचा जा सकता है। अभाव होता है पर स्त्री कभी भी व्यक्ति को बीच भँवर में छोड़कर उसको धोखा दे सकती है। वह अपनी प्रतिष्ठा (इज्जत)
इस निबंध में संक्षेप में सप्त व्यसनों पर विचार किया के नाम पर पुरुष को पतन के गर्त में ढकेल सकती है, सो सेवा
गया है, सभी व्यसन कष्ट कर, निंदनीय पाप में वृद्धि करने वाले, धर्मपत्नी करती है, उस सेवा भावना का पर स्त्री में अभाव रहता
प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाने वाले हैं। अतः इनसे बचकर ही रहना है। धर्म पत्नी न केवल अपने पति की सेवा करती है, वरन पति के
चाहियोयदि मनुष्य इससे बचकर जीवन यापन करता है तो माता-पिता की भी सेवा करती है। परिवार को एक सूत्र में बाँधे ।
उसके जीवन में सच्चरित्रता नैतिकता धार्मिक भावना का सागर रखती है। अपनी संतान के पालन पोषण में जो त्याग वह करती है,
दहाड़ें मारेगा। जीवन व्यसन मुक्त रहेगा तो जीवन विकास के द्वार स्वतः खुलते चले जायेंगे।
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