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________________ . यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म लोकहित ही। एक ओर तो तुम स्वयं अग्नि द्वारा अपने शरीर को प्रकार की कर्म-ग्रंथि का सृजन नहीं करता है और फलत: नारक, झुलसा रहे हो, तो दूसरी ओर अनेक छोटे-बड़े जीव-जन्तुओं देव, मनुष्य और पशु गति को प्राप्त नहीं होता है। ऋषिभाषित में को भी जला रहे हो, मात्र यही नहीं, इस लक्कड़ के टुकड़े में उपलब्ध पार्श्व के उपदेशों से ऐसा लगता है कि जैन-दर्शन की नाग-युगल भी जल रहा है।' उनकी इस बात की पुष्टि हेतु लक्कड़ पंचास्तिकाय की अवधारणा, अष्टकर्म का सिद्धांत और चातुर्यामको चीरकर नाग-युगल के प्राणों की रक्षा की गई। इससे यह धर्म का पालन, ये पार्श्व की मूलभूत मान्यताएँ थीं। पार्श्व के दर्शन बोध होता है कि पार्श्व के अनुसार वह साधना जो आत्मपीडन और चिंतन के कुछ रूप हमें पार्श्व के अनुयायियों की महावीर और परपीडन से जुड़ी हो सच्चे अर्थों में साधना नहीं कही जा और उनके शिष्यों के साथ हुई परिचर्चा से प्राप्त हो जाते हैं। सकती। साधना में ज्ञान और विवेक का होना आवश्यक है। भगवती, उत्तराध्ययन आदि में उपलब्ध पार्श्व की परम्परा देह-दण्डन, जिसमें ज्ञान और विवेक के तत्त्व नहीं है, आत्म- के चिंतन के आधार पर हम कह सकते हैं कि पार्श्व की परम्परा पीड़न से अधिक कुछ नहीं है। देह को पीड़ा देना साधना नहीं है। ___ में तप, संयम, अस्रव और निर्जरा की सुव्यवस्थित अवधारणा साधना से तो मनोविकारों में निर्मलता आती है एवं आत्मा में __ थी। पार्श्व की अन्य समस्त अवधारणाओं के सन्दर्भ में डॉ सहज आनन्द की अनुभूति होती है। पार्श्वनाथ की यह शिक्षा, सागरमल जैन ने अपने ग्रंथ 'अर्हत् पार्श्व और उनकी परम्परा' हो सकता है कि कर्मठ जैसे तापसों को अच्छी नहीं लगी हो, किन्तु में विस्तार से विचार किया है. वे लिखते हैं - "सत का उत्पादइसमें एक सत्य निहित है। धर्म-साधना को न तो आत्म-पीडन के व्यय-ध्रौव्यात्मक होना, पंचास्तिकाय की अवधारणा, अष्ट प्रकार साथ जोड़ना चाहिए और न पर-पीडन के साथ। वासना एवं की कर्म ग्रंथियाँ, शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ विपाक, कर्मविपाक विकारों से मुक्ति ही वास्तविक अर्थ में मुक्ति है।२०७ के कारण चारों गतियों में परिभ्रमण तथा सामायिक, संवर, ऐसा प्रतीत होता है कि पार्श्वनाथ ने अपने युग में एक प्रत्याख्यान, निर्जरा, व्युत्सर्ग आदि सम्बन्धी अवधारणाएँ महत्त्वपूर्ण क्रांति के द्वारा साधना को सहज बनाकर ज्ञान और पापित्य-परम्परा में स्पष्ट रूप से उपस्थित थीं।"२०८ विवेक के तत्त्व को प्रतिष्ठित किया होगा। इस प्रकार पार्श्व ने धर्म और साधना को पर-पीडन और आत्म-पीडन से मक्त २४. वधमान महावीर करके आत्म-शोधन या निर्विकारता की साधना के साथ जोड़ने महावीर वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीसवें और अंतिम का प्रयास किया है और उनकी यही शिक्षा भारतीय संस्कृति तीर्थंकर माने जाते हैं।२०९ इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता और श्रमण-परम्परा को सबसे बड़ा अवदान कहा जा सकता है। का नाम त्रिशला कहा जाता है, इनका जन्म-स्थान कुण्डपुर ग्राम बताया जाता है।२९० महावीर के जीवनवृत्त को लेकर जैनों की पार्श्व का धर्म एवं दर्शन श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में अनेक बातों में मतभेद हैं। ऋषिभाषित (ई.प. तीसरी-चौथी शती) में पार्श्व के श्वेताम्बर-परम्परा के अनसार महावीर का जीव सर्वप्रथम दार्शनिक मान्यताओं और धार्मिक उपदेशों का उल्लेख उपलब्ध ब्राह्मणी देवानन्दा के गर्भ में आया था और उसके पश्चात इन्द्र हो जाता है। हम उसी अध्याय के आधार पर उनके धर्म एवं के द्वारा उनका गर्भापहरण कराकर उन्हें सिद्धार्थ की पत्नी त्रिशला दर्शन को संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैं - पार्श्व ने लोक को की कक्षि में प्रस्थापित किया गया।२११ दिगम्बर-परम्परा इस पारिमाणिक नित्य माना है। उनके अनुसार लोक अनादि काल कल्पना को सत्य नहीं मानती है। महावीर के विवाह-प्रसंग को से है, यद्यपि उसमें परिवर्तन होते रहते हैं। उनके अनुसार जीव लेकर भी श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में मतभेद है। श्वेताम्बरऔर पदगल दोनों ही परिवर्तनशील हैं। पुद्गल में परिवर्तन परम्परा के अनसार महावीर का विवाह हआ था। उनकी पत्री स्वाभाविक होते हैं, जबकि जीव में परिवर्तन कर्मजन्य होते हैं। प्रियदर्शना थी. जिसका विवाह जामालि से हुआ था। वे यह भी कहते हैं कि व्यक्ति हिंसा, असत्य आदि पाप-कर्मों के दोनों परम्पराओं के अनुसार उनके शरीर की ऊँचाई सात माध्यम से अष्ट प्रकार की कर्म-ग्रंथियों का सृजन करता है। इसके हाथ तथा वर्ण स्वर्ण के समान माना गया है।२९२ दोनों परम्पराएँ विपरीत जो व्यक्ति चातुर्याम-धर्म का पालन करता है, वह अष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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