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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ देती है । भूतकाल में जो ज्ञान प्राप्त हो चुके हैं उन्हीं को प्रस्तुत करती है। इसलिए इसे प्रमाण की कोटि में नहीं रखा जा सकता। (२) विशेष विषय का अभाव- इसमें कोई विशेष विषय नहीं होता, ऐसा भी दोषारोपण इस पर हुआ है।
(३) अतीत की वस्तु को विषय बनाना - अतीत की वस्तु जिसे वर्तमान में असत् माना जाता है, स्मृति ग्रहण करती है। जिसकी सत्ता नहीं है उसे ग्रहण कैसे किया जा सकता है ? (४) अर्थ से उत्पन्न नहीं होना - जिस समय स्मृति होती है, उस समय कोई उत्पादक वस्तु नहीं होती। यह भी एक दोष इसके बताया किया गया है।
(५) स्मृति भ्रान्तिपूर्ण है- क्योंकि इससे कोई निश्चित ज्ञान नहीं होता है।
(६) संशयदोष के खण्डन की असमर्थता - यह किसी संशय को मिटाने में समर्थन नहीं होती है।
(७) प्रयोजनहीनता- इससे किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती है, ऐसा भी वे लोग मानते हैं जो इसे अप्रमाण की कोटि में रखते हैं। स्मृति प्रमाण है
९. गृहीत - ग्राही होना अप्रमाणता का लक्षण नहीं माना जा सकता। यदि गृहीत-ग्राही ज्ञान की अप्रमाणता का लक्षण माना जाएगा तब तो अनुमान भी अप्रमाण की कोटि में आ जाएगा। क्योंकि अनुमान भी पूर्व ज्ञान पर ही आधारित होता है । पूर्व ज्ञान के आधार पर ही धूम और अग्नि का संबंध माना जाता जिसके कारण हम धूम को देखकर अग्नि का अनुमान करते हैं।
२. स्मृति का कोई विषय नहीं होता, ऐसा कहना भी कोई अर्थ नहीं रखता। क्योंकि पूर्व अनुभूत वस्तु ही स्मृति का विषय बनती है।
३. अतीत की वस्तु जिसे स्मृति अपना विषय बनाती है, भले ही वर्तमानकाल में नहीं रहती, लेकिन भूतकाल में तो रहती है, अन्यथा उसका अनुभव कैसे होता । यदि भूतकाल की वस्तुको प्रमाण का कारण अथवा आधार नहीं माना जाएगा त तो प्रत्यक्ष प्रमाण भी प्रमाण की कोटि में नहीं आ सकता । क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण जिस वस्तु को बताता है वह एक क्षण के
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जैन-साधना एवं आचार
बाद ही समाप्त हो गई रहती है। जैसा कि बौद्धदर्शन मानता है ।
४. स्मृति पर यह दोषारोपण करके कि यह किसी अर्थ से उत्पन्न नहीं होती, इसे अप्रमाण की कोटि में रखना भी गलत है। क्योंकि बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष ज्ञान का अर्थ भी तो क्षणभर में समाप्त हो जाता है। वर्तमान काल में वह नहीं देखा जाता। स्मृति को भी अप्रमाण तो नहीं कहा जा सकता है. यदि प्रत्यक्ष को प्रमाण माना जाता है तो ।
५. स्मृति का जो अपना विषय है उसमें किसी प्रकार की भ्रान्ति नहीं है। यदि किसी को स्मृति में कोई भ्रान्ति दिखाई पड़ती है तो वह उसे स्मृति का आभास कह सकता है। उस भ्रान्ति के आधार पर वह स्मृति को प्रमाण की कोटि से निकाल नहीं सकता ।
६. स्मृति संशय को दूर नहीं करती, यह भी गलत आरोप है। स्मृति यदि बलवती है तो वहाँ पर संशय अथवा विपरीत आरोप का प्रश्न ही नहीं आता ।
७. स्मृति से प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती, ऐसा कहना तो मात्र दलील है। इसमें कोई बल नहीं है, क्योंकि स्मृति के आधार पर ही हमारे नाना प्रकार के व्यवहार होते हैं।
स्मृति पर जो विभिन्न आरोप हैं उनमें प्रधान है वर्तमान में उसके आधार का अभाव। वर्तमान में उसका कोई आधार नहीं है, इसलिए वह प्रमाण नहीं है । किन्तु इसके विरोध में जैनाचार्यो ने स्पष्ट रूप से माना है कि ज्ञान का प्रामाण्य उसकी वर्तमानता पर नहीं बल्कि यथार्थता पर निर्भर करता है। वस्तु भूत, वर्तमान या भविष्य किसी भी काल की क्यों न हो यदि ज्ञान उसे यथार्थ रूप में ग्रहण करता है तो वह प्रमाण है ' । स्मृति को अप्रमाण मानने वालों ने दूसरे ढंग से प्रस्तुत किया है कि स्मृति उस वस्तु को अपना स्रोत मानती है जो नष्ट हो चुकी है, जैसा कि ऊपर देखा गया है। इस संबंध में डा. मेहता ने लिखा है ।
'जैन दर्शन पदार्थ को ज्ञानोत्पत्ति का अनिवार्य कारण नहीं मानता...। ज्ञान अपने कारणों से उत्पन्न होता है। पदार्थ अपने कारणों से उत्पन्न होता है। ज्ञान में ऐसी शक्ति है कि वह पदार्थ को अपना विषय बना सकता है। पदार्थ का ऐसा स्वभाव है कि वह ज्ञान का विषय बन सकता है। पदार्थ और ज्ञान में कारण और कार्य का संबंध नहीं है। उनमें ज्ञेय और ज्ञाता, प्रकाश्य और प्रकाशक व्यवस्थाप्य और व्यवस्थापक का संबंध है। इन
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