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________________ - चतीन्द्र सूरि स्मारकालय - जैन आगम एवं साहित्य ६. प्रियदर्शना - गणिनी प्रियदर्शना गजपुर (हस्तिनापुर) की रहती थीं। वहाँ के जनसमादृत इभ्य ऋषभदत्त का पुत्र जम्बु लोकप्रतिष्ठ साध्वी थीं। गजपुर के युवराज अजितसेन (बाद में कुमार सुधर्मास्वामी (भगवान महावीर का पट्टधर शिष्य) से राजा) की पुत्री सुदर्शना ने (पूर्वजन्म में श्वायोनि में उत्पन्न) दीक्षित हुआ था और बाद में वह उनका जम्बुस्वामी के नाम से साध्वी प्रियदर्शना से प्रव्रज्या प्राप्त की थी और श्रामण्य का प्रमुख शिष्य हो गया था। जम्बुस्वामी की माता धारिणी और पालन करके देवलोक की अधिकारिणी हो गई थीं। साध्वी उनकी आठ पत्नियों (पद्मावती, कनकमाला, विनयश्री, धनश्री, प्रियदर्शना अपने नाम के अनुसार ज्ञानदीप्त ज्योतिर्मय रूप से कनकवती, श्रीसेना, ह्रीमती और जयसेना) ने एक साथ सुव्रता मण्डित थीं। (पीठिका) का शिष्यत्व स्वीकार किया था। (कथोतात्ति) ९. ब्रह्मिलार्या - साध्वी ब्रह्मिलार्या इक्ष्वाकुवंश की कन्याओं (ख) पूर्वोक्त कण्टकार्या (साध्वी सं. ३) की दीक्षागुरु को दीक्षित करने की अधिकारिणी के रूप में सत्प्रतिष्ठ गणिनी का नाम सुव्रता था। वह जीवस्वामी ( जीवंतसामी) की थीं। उन्होंने दक्षिर्णाद्धभरत के पुष्पकेतु नगर के राजा पुष्पदन्त अनुयायिनी भिक्षुणी प्रमुख (गणिनी या गणनायिका) थीं। उज्जयिनी और रानी पुष्पचूला की विमलाभा तथा सुप्रभा नाम की पुत्रियों -विहार के क्रम में उन्होंने मार्गभ्रष्टा सार्थवाहपत्नी वसुदत्ता को को शिक्षित और दीक्षित किया था। दोनों ही अपने तपोबल से दीक्षित करके उसे कण्टकार्या, दीक्षानाम दिया था। भगवतीस्वरूपा हो गई थीं। (अट्ठारहवाँ प्रियंगुसुन्दरीलम्भ) (धम्मिल्लचरित) ८. रक्षिता - साध्वी रक्षिता सत्रहवें तीर्थंकर कुन्थुस्वामी की (ग) मथुरा जनपद में सुग्राम नाम का गाँव था। वहाँ शिष्या थीं। कुन्थुस्वामी के साठ हजार शिष्यों में जिस प्रकार सोम नाम का ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी सोमदत्ता थी। स्वयम्भू प्रमुख थे, उसी प्रकार उनकी साठ हजार शिष्याओं में उसकी पुत्री का नाम गंगश्री था, जो परमदर्शनीय रूपवती थी। आर्या रक्षिता प्रमुख थीं। (इक्कीसवाँ केतुमतीलम्भ) वह निरंतर अर्हत्शासन में अनुरक्त रहती थी और कामभोग की ९. विपुलमति - जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में बहने वाली अभिलासा से विरक्त थी। सुग्राम में ही यक्षिल नाम का ब्राह्मण शीता महानदी के दक्षिणतट पर अवस्थित मंगलावती विजय रहता था। वह गात्रा र रहता था। वह गंगश्री का वरण करना चाहता था, लेकिन गंगश्री की रत्नसंचयपुरी के राजा क्षेमंकर के पौत्र तथा राजा वज्रायुध । उसे नहीं चाहती थी। जब गंगश्री उसे नहीं मिली, तब उसने वरुण के पुत्र राजा सहस्रायुध की दो पुत्रवधुओं-कनकमाला और नामक परिव्राजक के निकट परिव्राजकपद्धति से प्रव्रज्या ले ली। वसन्तसेना ने एक साथ साध्वी विपुलमति से प्रव्रज्या प्राप्त की इधर गंगश्री भी सुव्रता आर्या के निकट प्रव्रजित हो गई। गंगश्री के थी। साध्वी विपुलमति हिमालय के शिखर पर रहती थीं। उनसे प्रव्रजित होने की सूचना मिलने पर यक्षिल ने भी जैन साधु की दीक्षित होने के बाद कनकमाला और वसन्तसेना निरंतर तप में से पद्धति से प्रव्रज्या स्वीकार की। (अट्ठारहवाँ प्रियंगसन्दरीलम्भ) पद्धात स उद्यत रहकर बहुजनपूज्या आर्या हो गईं। (इक्कीसवाँ केतमतीलम्भ) (घ) जम्बूद्वीप स्थित पूर्वविदेह के रमणीय विजय की १०.-११. विमलाभा और सप्रभा - जैसा पहले (साध्वी सं. सुभगा नगरी के युवराज बलदेव, अपर नाम अपराजित की ७ में) कहा गया, दक्षिणार्द्धभरत के पुष्पकेतु नगर के इक्ष्वाकुवंशी । विरता नाम की पत्नी से उत्पन्न सुमति नाम की पुत्री ने राजकुल राजा पुष्पदन्त और उसकी रानी पुष्पचूला से उत्पन्न दो पुत्रियों की सात सौ कन्याओं के साथ सव्रता आर्या के निकट दीक्षा के नाम थे-विमलाभा और सुप्रभा। दोनों ही पुत्रियों ने साध्वी ग्रह ग्रहण की थी। फिर, उसने तपः क्रम अर्जित करके केवल ज्ञान ब्रह्मिलार्या से दीक्षा ग्रहण की थी और बाद में दोनों ही प्रज्ञाप्रखर प्राप्त किया और क्लेशकर्म का क्षय करके सिद्धि प्राप्त की। पण्डिता आर्याओं के रूप में लोकसमाद्रत हईं। (इक्कीसवाँ केतुमतीलम्म) १२. सुव्रता - कथाकार आचार्य संघदास गणी ने सत्ता नाम १३. सुस्थितार्या - जम्बूद्वीप स्थित ऐरवतवर्ष के विन्ध्यपर की साध्वी की चार भिन्न संदों में चर्चा की है। जैसे नगर में राजा नलिनकेतु राज्य करता था। उसकी रानी का नाम था प्रभंकरा। एक दिन मेघपुंज को हवा में तितर-बितर होते देख (क) सुव्रता साध्वी मगध जनपद के राजगृह नगर में राजा नलिनकेतु ने मेघ की भांति समृद्धि के उदय और विनाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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