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________________ यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथःसन्देश- वन्दन कोटि कोटि वन्दनारे.....mpopsiकिडीकि वे मनोविजेता थे....6 उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है अहीवेगंत दिट्ठीए, चरित्ते पुत्त ! दुच्चरे। जानना जवालोहमया चेवं, चावेयव्वा सुदुक्करं॥ इसका तात्पर्य यह है कि सर्प की एकाग्र दृष्टि की भांति एकाग्र मन रखते हुए चारित्र पालना अत्यन्त दुष्कर है और लोहे के चने चबाने के समान संयम पालना अत्यन्त कठिन है।" विराबात वास्तव में सत्य कही गई है। भोगों से विमुख होकर, सांसारिक सुखों का त्याग कर एकाग्र चित्त के साधना किए बिना संयम का पालन नहीं हो सकता। किंतु जो दृढ़ संकल्पी होते हैं, जो मनोविजेता होते हैं उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं होता है। मन से जो हार स्वीकार कर लेता है, हार मान लेता है वह कभी भी विजयी नहीं हो सकता। मनोविजेता कहीं भी पराजित नहीं हो सकता। हर स्थान पर हर क्षेत्र में सफलता उसके सामने हाथ पसारे खड़ी दिखाई देती है। परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. सही अर्थों में इन्द्रियों विजेता/मनोविजेता थे। तभी तो दुष्कर संयम पालन में वे पूर्णतः सफल रहे। ___ऐसे संयमाराधक, मनोविजेता पूज्य गुरुदेव के परम पावन चरणों में कोटिशः वंदन करते हुए उनके दीक्षा शताब्दी वर्ष के अवसर पर प्रकाशित होने वाले स्मारक ग्रंथ के लिए मैं अपनी हार्दिक मंगल कामनाएं प्रेषित करता हूं। प्रति, वंदन श्री चरणों में भीखमचंद मुनिलालजी चौपड़ा ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' आहोर श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ NYRENYSYNY NYRESYNX NENENE NYRERNE ERENS R2 (36) RXAYRYNENNUNUNUNUNUNUNUN NU080URUNMUNE Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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