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________________ - यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - नहीं हुआ। चंपाकुँवर की मृत्यु के पंद्रह दिनों के पश्चात् कनिष्ठ पुत्र किशोरीलाल कालकवलित हो गया। यह इस परिवार का दूसरा वज्रघात था। नगरनिवासी भी इस परिवार का संकट देखकर हा-हाकार कर उठे। इस आघात से श्री ब्रजलालजी की हालत भी कुछ बिगड़ गई थी। कुछ शुभचिंतकों ने उनको पुनर्विवाह का भी परामर्श दिया था, किन्तु उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया। धौलपुर नरेश भी अब नहीं रहे थे। उनके पुत्र का राज चल रहा था। श्री ब्रजलाल जी ने राज्य पद छोड़ दिया और धौलपुर से भोपाल आ गए। वातावरणपरिवर्तन से कुछ प्रभाव पड़ता है। यही विचार कर ब्रजलाल जी अपने पुत्रों एवं पुत्रियों को लेकर भोपाल आ गए थे। भोपाल आकर उन्होंने मुख्य रूप से दो बातों पर ध्यान दिया- (१) अपने लिए धर्मध्यान और (२) संतान के लिए उचित शिक्षण। किन्तु भोपाल आने पर भी दुर्दिन ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। उनके ज्येष्ठ पुत्र दुलीचंद को भोपाल की जलवायु अनुकूल न लगी और वह पुनः धौलपुर अपने काका के पास लौट गया। इस समय रामरत्न की आयु सात वर्ष की थी। शिक्षा दिगंबर जैन मतावलम्बी होने के कारण श्री ब्रजलालजी ने रामरत्न को वि.सं. १९४७ में भोपाल की दिगंबर जैन पाठशाला में प्रविष्ट करवा दिया। रामरत्न अब पाठशाला और घर दोनों स्थानों पर अध्ययन करने लगे। श्री ब्रजलाल जी प्रातः धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करवाते और रात्रि को धार्मिक कहानियां सुनाते। रामरत्न कुशाग्र बुद्धि वाले थे। योग्य पिता के योग्य पुत्र ने शीघ्र ही मंगलपाठ, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकाण्ड श्रावकाचार, आलापपद्धति, द्रव्यसंग्रह, देवधर्मपरीक्षा, नित्य स्मरण पाठ आदि ग्रंथों को न केवल कंठस्थ कर लिया, वरन् अर्थ सहित पठन भी कर लिया। इनके अतिरिक्त भक्तामर, मंत्राधिराज, विषापहार, कल्याणमंदिर और जिनदर्शन स्त्रोतों को भी अर्थ सहित समझकर कंठस्थ कर लिया। यह सब रामरत्न ने नौ वर्ष की अल्पायु में कर लिया था। इससे रामरत्न की तीव्र मेधा शक्ति का पता चलता है। आपकी बुद्धिमता को और स्मरण शक्ति को देखकर शिक्षक भी दाँतों तले अंगुली दबाकर वाह-वाह कर उठते थे। रामरत्न का अपनी कक्षा में अब प्रथम स्थान हो गया। इसके अतिरिक्त रामरत्न में एक गुण और यह था कि अपने अध्ययन के साथ-साथ मोहल्ले के समवय लड़कों को वे नियमित रूप से धार्मिक अभ्यास भी करवाने लगे थे। पिताश्री ब्रजलाल जी अपने पुत्र का यह विकास देखकर प्रसन्न थे, गद्गद् थे। आघात पर आघात- श्री ब्रजलाल एवं पुत्र रामरत्न का समय आनंदपूर्वक व्यतीत हो रहा था, किन्तु विधि से उनकी यह प्रसन्नता देखी नहीं गई। वि.सं. १९५२ शुरू हुआ। परिवार के दिन सुखपूर्वक बीत रहे थे कि चैत्र मास के अंत में श्री ब्रजलाल जी कुछ अन्य मनष्क से रहने लगे। उनका यह परिवर्तन समझ से परे था। वैशाख शुक्ल प्रतिपदा का दिन रामरत्न के लिए बहुत बड़ा आघात लेकर उपस्थित हुआ। श्री ब्रजलाल जी एकाएक इस दिन इस असार संसार को छोड़कर सदा-सदा के लिए चले गए। रामरत्न असहाय हो गए। टूटी की बूटी नहीं होती। विधि के विधान के आगे किसी का वश नहीं चलता। रामरत्न इस समय परिस्थिति को समझने लगे थे। उनके सामने अब केवल शून्य था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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