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________________ यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्य - शारीरिक दृष्टि से भी दोनों स्वस्थ एवं सुंदर थे। धार्मिक दृष्टि से भी श्री चंपाकुँवर अपने पति के समान ही धर्मपरायणा ही थी। सौ. चम्पाकुँवर की रुचि धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन की विशेष थी। विवाहोपरांत भी उसने अपनी यही रुचि बनाए रखी। सौ. चंपाकुंवर ने अपने वैदुष्य का लाभ अन्य महिलाओं को भी प्रदान किया। गृहकार्य में भी वह पूर्ण दक्ष थी। सास-ससुर की भी वह सदैव सेवा करती रहती थी। इस प्रकार यह कह सकते हैं कि इस परिवार में वह साक्षात् लक्ष्मी थी। वह परिवार में किसी को कभी भी शिकायत का अवसर प्रदान नहीं करती थी। पतिपरायणा, सुशीला, सेवापरायणा, गृहकार्यदक्षा, चम्पाकुँवर को पाकर परिवार प्रसन्न था। श्री ब्रजलालजी तो ऐसी पत्नी पाकर फूले नहीं समाते थे। वि.सं. १९३२ पौष शुक्ला तृतीया का दिन इस परिवार के लिए और आनंददायक रहा। इस दिन सौ. चंपाकुंवर की पावन कुक्षि से दुलीचंद नामक पुत्र और गंगाकुँवर नामक पुत्री का युगल रूप में जन्म हुआ। पुत्र-पुत्री का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया गया। सं. १९३५ में पुनः इस परिवार में हर्ष व्याप्त हो गया। श्री ब्रजलालजी के गुणों से प्रभावित होकर धौलपुर नरेश ने उन्हें राज्य के एक उच्च पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। अल्पकाल में ही श्री ब्रजलाल जी ने राजा का विश्वास अर्जित कर लिया और प्रजा में भी लोकप्रिय हो गए। यह उनकी कार्यकुशलता का प्रमाण था। F कार्तिक शुक्ला द्वितीया सं. १९४० रविवार को इस परिवार में सूरज उतर आया। हाँ, आकाश का सूरज धरती पर उतर आया। इस दिन सौ. चंपाकुँवर की पावन कुक्षि से एक सुंदर, सलौने, हृष्ट-पुष्ट पुत्र रत्न का जन्म हुआ। माता-पिता एवं परिजनों ने नाम रखा रामरत्न। रामरत्न के जन्मोत्सव को हर्षोल्लासमय वातावरण में मनाया गया। इस पुत्र के जन्म के कुछ समय पश्चात् धौलपुर नरेश ने श्री ब्रजलाल जी को राय साहब की उपाधि से अलंकृत किया। श्री ब्रजलाल जी का यही पुत्ररत्न रामरत्न आगे चलकर आचार्य श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरिजी महाराज के नाम से विख्यात हुआ। वि.सं. १९४४ श्रावण शुक्ला पंचमी को श्रीमती चंपाकुँवर की पावन कुक्षि से किशोरीलाल नामक एक पुत्र और रमाकुँवर नामक एक पुत्री का युगल रूप से जन्म हुआ। इस प्रकार इस परिवार में तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ हो गईं। एमा। या कहा गया है कि माता शिशु की प्रथम शिक्षका होती है। यदि माता विदुषी हो तो सोने में सुहागा वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है। सौ. चम्पाकुँवर सर्वगुण सम्पन्न थी, परम विदुषी भी थी। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र एवं पुत्री को प्रारम्भिक अक्षरज्ञान घर पर ही करवाया। अपने दूसरे पुत्र रामरत्न को भी वह शिक्षा प्रदान करने लगी, किन्तु विधि का विधान कुछ और ही था। _वज्रघात- एक ही वर्ष अर्थात् वि.सं. १९४६ में श्री ब्रजलालजी के माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। इसके बाद एक दिन यकायक सौ. चंपाकुँवर अस्वस्थ हुई और देखते ही देखते देवलोकगमन कर गई। श्री वज्रलाल जी और उनकी संतान के लिए सौ. चंपाकुँवर का देहावसान वज्राघात था। परिवार में मायसी और निराशा छा गई। हंसता-खेलता परिवार शोक के अंधकार में डूब गया। विधि को यहीं संतोष సంసారసాగరశయ d a ordina n dandinindian Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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