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________________ -- यतीन्द्रसरि मारकमान्य जैन आगम एवं साहित्य समान है, इससे इसकी प्राचीनता स्पष्ट हो जाती है। यह ग्रन्थ किसी भी संघ-भेद या सम्प्रदाय-भेद के पूर्व की रचना हैं। अत: इनकी प्राचीनता भी स्थिति में ई.पू. प्रथम शती से परवर्ती नहीं है। इन तीनों प्रज्ञप्तियों में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। 'आवश्यक' श्रमणों की दैनन्दिन को दिगम्बर-परम्परा में भी दृष्टिवाद के एक अंश--- परिकर्म के अन्तर्गत क्रियाओं का ग्रन्थ था अत: इसके कुछ प्राचीन पाठ तो भगवान् महावीर माना जाता है। अत: यह ग्रन्थ भी दृष्टिवाद के पूर्ण विच्छेद एवं सम्प्रदाय के समकालिक ही माने जा सकते हैं। चूँकि दशवकालिक, उत्तराध्ययन भेद के पूर्व का ही होना चाहिये। और आवश्यक के सामायिक आदि विभाग दिगम्बर और यापनीय परम्परा छेदसूत्रों में दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार को स्पष्टत: भद्रबाहु में भी मान्य रहे हैं, अत: इनकी प्राचीनता असंदिग्ध है। प्रथम की रचना माना गया है। अत: इसका काल ई.पू. चतुर्थ-तृतीय प्रकीर्णक-साहित्य में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में है। शताब्दी के बाद का भी नहीं हो सकता है। ये सभी ग्रन्थ अचेल-परम्परा अत: ये सभी नन्दीसूत्र से तो प्राचीन हैं ही, इसमें सन्देह नहीं किया में भी मान्य रहे हैं। इसी प्रकार निशीथ भी अपने मूल रूप में तो जा सकता। पुन: आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि आदि आचाराङ्ग की ही एक चूला रहा है, बाद में उसे पृथक् किया गया प्रकीर्णको की सैंकड़ों गाथाएँ यापनीय-ग्रन्थ मूलाचार और भगवतीआराधना है। अत: इसकी प्राचीनता में भी सन्देह नहीं किया जा सकता। याकोबी, में पायी जाती हैं, मूलाचार एवं भगवतीआराधना भी छठी शती से शुबिंग आदि पाश्चात्य विद्वानों ने एकमत से छेदसूत्रों की प्राचीनता परवर्ती नहीं हैं। अत: इन नौ प्रकीर्णकों को तो ई.सन् की चौथी-पाँचवीं स्वीकार की है। इस वर्ग में मात्र जीतकल्प ही ऐसा ग्रन्थ है जो निश्चित शती के परवर्ती नहीं माना जा सकता। यद्यपि वीरभद्र द्वारा रचित कुछ ही परवर्ती है। पं० दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार यह आचार्य प्रकीर्णक नवीं-दसवीं शती की रचनाएँ हैं। इसी प्रकार चूलिकासूत्रों जिनभद्र की कृति है। ये जिनभद्र विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता हैं। इनका के अन्तर्गत नन्दी और अनुयोगद्वार सूत्रों में भी अनुयोगद्वार को कुछ काल अनेक प्रमाणों से ई.सन् की सातवीं शती निश्चित है। अत: विद्वानों ने आर्यरक्षित के समय का माना है। अत: वह ई.सन् की जीतकल्प का भी काल वही होना चाहिये। मेरी दृष्टि में पं. दलसुखभाई प्रथम शती का ग्रन्थ होना चाहिए। नन्दीसूत्र के कर्ता देववाचक देवर्धि की यह मान्यता निरापद नहीं है, क्योंकि दिगम्बर-परम्परा में इन्द्रनन्दि से पूर्ववर्ती हैं अत: उनका काल भी पाँचवीं शताब्दी से परवर्ती नहीं के छेदपिण्डशास्त्र में जीतकल्प के अनुसार प्रायश्चित्त देने का विधान हो सकता। किया गया है, इससे फलित होता है कि यह ग्रन्थ स्पष्ट रूप से इस प्रकार हम देखते हैं कि उपलब्ध आगमों में प्रक्षेपों को छोड़कर सम्प्रदाय-भेद से पूर्व की रचना होनी चाहिये। हो सकता है इसके कर्ता अधिकांश ग्रन्थ तो ई.पू. के हैं। यह तो एक सामान्य चर्चा हुई, अभी जिनभद्र विशेषावश्यक के कर्ता जिनभद्र से भिन्न हों और उनके पूर्ववर्ती इन ग्रन्थों में से प्रत्येक के काल-निर्धारण के लिए स्वतन्त्र और सम्प्रदायभी हों। किन्तु इतना निश्चित है कि नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में जो निरपेक्ष दृष्टि से अध्ययन की आवश्यकता बनी हुई है। आशा है जैनआगमों की सूची मिलती है उसमें जीतकल्प का नाम नहीं है। अत: विद्वानों की भावी पीढ़ी इस दिशा में कार्य करेगी। यह उसके बाद की ही रचना होगी। इसका काल भी ई.सन् की पाँचवीं शती का उत्तरार्द्ध होना चाहिये। इसकी दिगम्बर और यापनीय परम्परा आगमों की वाचनाएँ में मान्यता तभी सम्भव हो सकती है जब यह स्पष्ट रूप से संघभेद यह सत्य है कि वर्तमान में उपलब्ध श्वेताम्बर-मान्य अर्धमागधी के पूर्व निर्मित हुआ हो। स्पष्ट संघ-भेद पाँचवीं शती के उत्तरार्ध में आगमों के अन्तिम स्वरूप का निर्धारण वलभी वाचना में वी.नि.संवत् अस्तित्व में आया है। छेदवर्ग में महानिशीथ का उद्धार आचार्य हरिभद्र ९८० या ९९३ में हुआ किन्तु उसके पूर्व भी आगमों की वाचनाएँ ने किया था, यह सुनिश्चित है। आचार्य हरिभद्र का काल ई.सन् की तो होती रही हैं। जो ऐतिहासिक साक्ष्य हमें उपलब्ध हैं उनके अनुसार आठवीं शती माना जाता है। अत: यह ग्रन्थ उसके पूर्व ही निर्मित अर्धमागधी आगमों की पाँच वाचनाएँ होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। हुआ होगा। हरिभद्र इसके उद्धारक अवश्य हैं, किन्तु रचयिता नहीं। मात्र इतना माना जा सकता है कि उन्होंने इसके त्रुटित भाग की रचना प्रथम वाचना की हो। इस प्रकार इसका काल भी आठवीं शती से पूर्व का ही है। प्रथम वाचना महावीर के निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् हुई। मूलसूत्रों के वर्ग में दशवैकालिक को आर्य शय्यंभव की कृति परम्परागत मान्यता तो यह है कि मध्यदेश में द्वादशवर्षीय भीषण अकाल माना जाता है। इनका काल महावीर के निर्वाण के ७५ वर्ष बाद का के कारण कुछ मुनि काल-कवलित हो गये और कुछ समुद्र के तटवर्ती है। अत: यह ग्रन्थ ई.पू. पाँचवीं-चौथी शताब्दी की रचना है। उत्तराध्ययन प्रदेशों की ओर चले गये। अकाल की समाप्ति पर वे मुनिगण वापस यद्यपि एक सङ्कलन है, किन्तु इसकी प्राचीनता में कोई शंका नहीं लौटे तो उन्होंने यह पाया कि उनका आगम-ज्ञान अंशत: विस्मृत एवं है। इसकी भाषा-शैली तथा विषय-वस्तु के आधार पर विद्वानों ने इसे विशृङ्खलित हो गया है और कहीं-कहीं पाठभेद हो गया है। अत: उस ई.पू. चौथी-तीसरी शती का ग्रन्थ माना है। मेरी दृष्टि में यह पूर्व युग के प्रमुख आचार्यों ने पाटलीपुत्र में एकत्रित होकर आगमज्ञान को प्रश्नव्याकरण का ही एक विभाग था। इसकी अनेक गाथाएँ तथा कथानक व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। दृष्टिवाद और पूर्व साहित्य का कोई पालित्रिपिटक साहित्य, महाभारत आदि में यथावत् मिलते हैं। दशवैकालिक विशिष्ट ज्ञाता वहाँ उपस्थित नहीं था। अत: ग्यारह अङ्ग तो व्यवस्थित और उत्तराध्ययन यापनीय और दिगम्बर परम्परा में मान्य रहे हैं, अत: ये किये गये, किन्तु दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्निहित साहित्य को व्यवस्थित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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