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णमो समणस्स भगवओ सिरी महावीरस्स श्रीनमस्कारमहामन्त्र
श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीशशिष्य मुनि देवेन्द्रविजय "साहित्य प्रेमी"
नमस्कारसमो मन्त्रः,शत्रुजयसमो गिरिः।
"तहेव च तदत्याणुगिमयं इक्कारस पय परिच्छिन्नं ति वीतरागसमो देवो, न भूतो न भविष्यति ।।१।।
आलावगतित्तीखडक्ख परिमाणं 'एसो पंच नमुक्कारो, जिस प्रकार वैदिक समाज में वैदिक मंत्रों तथा गायत्री
सव्वपावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ।।१।। मंत्रों का पारसी और ईसाइयों में प्रार्थना का महत्त्व है; उसी
इय चूलं ति अहिज्जंति त्ति" तत्र प्रकृत् तदेवम्, हवइ मंगलं
२ प्रकार श्री जैन-शासन में श्री नमस्कार महामंत्र का महत्त्वपूर्ण
इत्यस्य साक्षादागमे भणितत्वात् प्रभु श्री वज्रस्वामीप्रभृतिसुबहुश्रुत
इ स्थान माना गया है। धर्मोपासक कोई भी प्राणी हो, फिर वह
सुविहितसंविग्नपूर्वाचार्यसम्मतत्वाच्च 'हवइ मंगलं' इति पाठेन अवस्था से बाल हो, वृद्ध हो अथवा तरुण हो, सब प्रत्येक
अष्टषष्ठ्यक्षरप्रमाण एव नमस्कारः पठनीयः।" समय नमस्कार-महामंत्र का श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। जिनेन्द्र (श्रीअभिधानराजेन्द्रकोश, भाग ४, पृष्ठ १८३६) -शासन में इस मंत्राधिराज के समान दूसरा कोई मंत्र अथवा
इस पाठानुसार अड़सठ अक्षरप्रमाण श्रीनमस्कारमंत्र का विधान नहीं है। आत्मिक साधना हो या व्यावहारिक कार्य हो, -
स्मरण करना चाहिए, जो इस प्रकार है : व्यापार हो अथवा परदेशगमन हो, मूलबात छोटे-बड़े सब कार्यों
"णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो में सर्वप्रथम महामंगलकारी श्री आदिमंत्र (नवकार) का ही स्मरण किया जाता है। पूर्वाचार्यों ने जितने भी आश्चर्यजनक कार्य किए
उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं। हैं, जिन्हें सुनकर हम विस्मित हो जाते हैं। उन सबमें भी नमस्कारमंत्र एसो पंच नमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। की आराधना का ही फल सन्निहित है। पंचमांग श्री व्याख्याप्रज्ञप्ति
मंगलाणंच सव्वेसिं, पढम हवइ मंगलं ।।१।। (भगवती) सूत्र का प्रारम्भ नमस्कारमंत्र से मंगलाचरण करने के इसके अड़सठ अक्षरों की गणना इस प्रकार है : पश्चात् ही किया गया है। श्री महानिशीथसूत्र में भी लिखा है :
सत्त पय सत्त-सत्त य नव अट्ठ य अट्ट नव पहुंति । "ताव न जायइ चित्तेण, चिन्तियं पत्थियं च वायाए।
इय पय अक्खरसंखा असहू पूरेई अडसट्ठी ।। काएण समाढत्तं, जाव न तरिओ नमुक्कारो ।।"
(श्रीअभिधानराजेन्द्रकोश, भाग ४, पृ. १८३६) चित्त से चिंतित, वचन से प्रार्थित और काया से प्रारम्भ प्रथम पद के सात, दूसरे पद के पाँच, तीसरे पद के सात, कार्य वहीं तक सिद्धि को प्राप्त नहीं होते, जब तक कि नमस्कारमंत्र चौथे पद के सात, पाँचवें पद के नव, छठे पद के आठ, सातवें का स्मरण नहीं किया जाता।
पद के आठ, आठवें पद के आठ और नवम पद के नौ। इस इस प्रकार महानिशीथसत्र ही नहीं, अपित अनेक सत्र-ग्रन्थों प्रकार यह पदाक्षर संख्या जोड़ने से (७+५+७+७+९ तथा पूर्वाचार्यों ने इस चौदह पूर्व के सारभूत नमस्कार महामंत्र की +८+८+८+९=६८) अड़सठ अक्षर होते हैं। शास्त्रीयमहत्ता दिखलाई है। ऐसे महा-महिमावन्त नमस्कार का उच्चारण आज्ञानुसार ६८ अक्षरप्रमाण नमस्कार का पठन होना ही चाहिए, करते समय किस पद में कितने और कौन-से अक्षर होना चाहिए? इसलिए लिखा है : नमस्कार-मंत्र का ही स्मरण क्यों करना चाहिए? यह दिखलाना ही "त्रयस्त्रिंशदक्षर प्रमाण चूलिका सहितो नमस्कारो मननीय इत्युक्तं भवति।" । यहाँ हमारा ध्येय है। श्री महानिशीथसूत्र के :
(श्रीअभिधानराजेन्द्रकोश, भा. ४, पृ. १८३६)
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