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प्राचीन एवं अर्वाचीन त्रिस्तुतिक गच्छ
डा. शिवप्रसाद.....
र्व मध्यकाल में श्वेताम्बर श्रमणसंघ का विभिन्न गच्छों और उपगच्छों में विभाजन जैन धर्म के इतिहास की एक अत्यंत
महत्त्वपूर्ण घटना है। चन्द्रकुल (बाद में चंद्रगच्छ) से अनेक छोटी-बड़ी शाखाओं (गच्छों) का प्रादुर्भाव हुआ और ये शाखाएँ पुन: कई उपशाखाओं में विभाजित हुई। चन्द्रकुल की एक शाखा (वडगच्छ/बृहद्गच्छ) के नाम से प्रसिद्ध हुई। वडगच्छ से वि.सं. ११४९ में पूर्णिमागच्छ का प्रादुर्भाव हुआ और पूर्णिमागच्छ की एक शाखा वि.सं. की १३वीं शती से आगमिकगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई।
पूर्णिमागच्छ के प्रवर्तक आचार्य चन्द्रप्रभसूरि के शिष्य आचार्य शीलगुणसूरि इस गच्छ के आदिम आचार्य माने जाते हैं। इस गच्छ में यशोभद्रसूरि, सर्राणंदसूरि, विजयसिंहसूरि, अमरसिंहसूरि, हेमरत्नसूरि, अमररत्नसूरि, सोमप्रभसूरि, आणंदप्रभसूरि, मुनिरत्नसूरि, आनन्दरत्नसूरि आदि कई विद्वान् एवं प्रभावक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने अपने साहित्यिक और धार्मिक क्रियाकलापों से श्वेताम्बर श्रमणसंघ को जीवन्त बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रदान की।
पूर्णिमागच्छीय आचार्य शीलगुणसूरि और उनके शिष्य देवभद्रसूरि द्वारा जीवदयाणं तक का शक्रस्तव और ६७ अक्षरों का परमेष्ठीमंत्र, तीन स्तुति से देववंदन आदि बातों में आगमपक्ष के समर्थन से वि.सं. १२१४ या १२५० में आगमिकगच्छ अपरनाम त्रिस्तुतिकमत का प्रादुर्भाव हुआ इस गच्छ का त्रिस्तुतिक नाम इसलिए प्रसिद्ध हुआ कि वे आगगिक आधारों पर प्रतिक्रमण में शासनदेवता एवं क्षेत्रपाल आदि की स्तुति का विरोध करते थे तथा अरिहन्त, चैत्य एवं गुरु की स्तुति को ही स्थान देते थे।
आगमिक गच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिए साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं। साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत इस गच्छ के आचार्यों द्वारा लिखित ग्रंथों की प्रशस्तियों तथा इस गच्छ और इसकी शाखाओं की पट्टावलियों का उल्लेख किया जा सकता है। अभिलेखीय साक्ष्यों के अन्तर्गत इस गच्छ के आचार्यो/मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित जिन प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों को रखा गया है, इनकी संख्या सवा दो सौ के आसपास है।
पट्टावलियों द्वारा इस गच्छ की दो शाखाओं-धंधूकीया और विडालंबीया का पता चलता है।
आगमिकगच्छ और उसकी शाखाओं की पट्टावलियों की तालिका इस प्रकार है-- क्र. पट्टावली का नाम रचनाकार संभावित तिथि
सन्द ग्रंथ १. आगमिकगच्छपट्टावली अज्ञात
१३वीं शती
विधिगच्छीयपट्टावली लगभग
संग्रह-संपा. जिनविजय,
२.
आगमिकगच्छपट्टावली
अज्ञात
१६वीं शती
पृष्ठ ९-१२ जैनगूर्जरकविओ, भाग-३ परिशिष्ट, संपा. मोहनलाल दलीचंद देसाई
लगभग
पृष्ठ २२२४-२२३२
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