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________________ चतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य विमत्र दूसरी वस्तुओं से एकता स्थापित करते हैं। उन्हें इस बात जो रचनावैशिष्टय, निरूपण की प्रांजलता तथा अध्यात्म का पुट की परवाह नहीं है कि ये सारी वस्तुएँ पुद्गल के रूप हैं, जिनसे है, वह मूलाचार में नहीं। प्रवचनसार के अंत में आगत मुनिधर्म यथार्थ में आत्मा का स्वरूप अलग है। जीव में पुद्गल के गुण के संक्षिप्त, किन्तु सारपूर्ण वर्णन से मूलाचार के किन्हीं वर्णनों नहीं है। इनका गुणस्थान और मार्गणास्थान से कोई प्रयोजन नहीं में उनके साथ एकरूपता भी नहीं है। मूलाचार के समयसाराधिकार है। ये सब कर्मजन्य अवस्था में हैं। संसारावस्था में ये जीव की में कुन्दकुन्द के समयसार ग्रंथ की छाया भी नहीं है ११॥ व्यवहार से कही जाती हैं। यदि इन सारी पौद्गलिक अवस्थाओं मलाचार की कछ गाथाएँ आवश्यकनिर्यक्ति पिण्डनिर्यक्ति. का जीव के साथ एकत्व हो तो जीव और पुद्गल के मध्य कोई जीवसमास तथा आतरप्रत्याख्यान में मिलती हैं। कछ गाथाओं भेदक रेखा ही न हो। जीव के भेद और संयोग नामकर्म की का आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों की गाथाओं से भी साम्य है। इस निष्पत्तियाँ हैं। व्यक्ति को जीव और कर्मास्रव के भेद का अनुभव आधार पर कुछ विद्वान् मूलाचार को संग्रहग्रंथ मानते हैं। यथार्थ में होना चाहिए तथा उसे क्रोधादि अवस्थाओं को छोड़ देना चाहिए। ये गाथाएँ उस काल की हैं, जब दिगंबर और श्वेताम्बर भेद का उदय क्योंकि इन अवस्थाओं के रहते हुए जीव कर्मों से बँधा है। जब नहीं हुआ था। अत: कुछ गाथाएँ बाद में दोनों संप्रदायों की सम्पत्ति अशुद्धता का खतरा जान लिया जाता है, तब आत्मा आस्रव के बन गईं। इस प्रकार यह एक संग्रह-ग्रंथ नहीं कहा जा सकता। कारणों से अलग हो जाता है। वट्टकेर आचार्य का मूल नाम न होकर उनके ग्राम का आचार्य वटेकर.आचार्य वट्टकेरकृत मूलाचार दिगंबर परंपरा नाम हो सकता है। दक्षिण में बेटकेरिया या बेटगेरि नाम वाले में आधाराङ्ग के रूप में माना जाता है। आचार्य वीरसेन (८-९ कुछ ग्राम अब भी हैं। इसमें संदेह नहीं कि मूलाचार बहुत पुराना वीं शती) ने षट्खण्डागम की धवला टीका (८१६ ई.) में मूलाचार __ है। आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ती में मूलाचार का उल्लेख को आचाराङ्ग के नाम से उल्लिखित करते हुए मूलाचार के पंचम किया है १२। मलाचार अपनी विषय-वस्त और भाषा आदि की अधिकार की गाथा संख्या २०२ इस प्रकार उद्धृत की है-- दृष्टि से तृतीय शती के आसपास का सिद्ध होता है १३। इसके पंचत्थिकाय छज्जीवणिकाये कालदव्वमण्णे य । बारह अधिकार इस प्रकार हैं--मूलगण, बृहत्प्रत्याख्यान संस्तरस्तव आणागेज्झे भावे आणाविचयेण विचिणादि । संक्षेपप्रत्याख्यान, सामाचार, पंचाचार, पिण्डशुद्धि, षडावश्यक, आचार्य वसुनन्दि ने मूलाचार के मङ्गलाचरण की वृत्ति में द्वादशानुप्रेक्षा, अनगारभावना, समयसार, शीलगुण और पर्याप्ति। तथा आचार्य सकलकीर्ति ने अपने मलाचार ग्रंथ के प्रारंभ में शिवार्य - भगवतीआराधना के रचयिता शिवार्य ने जो अपना यह उल्लेख किया है कि आचाराङ्ग ग्रंथ का उद्धार कर प्रस्तुत परिचय दिया है, उससे इतना ही ज्ञात होता है कि आर्य जिननन्दि मूलाचार ग्रंथ की रचना की गई है। गणि, सर्वगुप्त गणि और आचार्य मित्रनन्दि के पादमूल में सम्यक् कुछ लोग मूलाचार को आचार्य कुन्दकुन्द-कृत मानते हैं, रूप से श्रत और अर्थ को जानकर हस्तपट में आहार करने वाले क्योंकि मूलाचार-सवृत्ति नामक कर्नाटक टीका में मेघचन्द्राचार्य शिवार्य ने पूर्वाचार्यकृत रचना को आधार बनाकर यह आराधना तथा मुनिजनचिन्तामणि नामक एक कर्नाटक टीका में इसे रची। गाथा २१६० में वह 'ससत्तीए' अपनी शक्ति से पूर्वाचार्यआचार्य कुन्दकुन्द की रचना होने का उल्लेख किया गया है । निबद्ध रचना को उपजीवित करने की बात कहते हैं। उपजीवित मडबिी स्थित पं. लोकनाथ शास्त्री सरस्वती भंडार (जैनमठ) का अर्थ पनः जीवित करना होता है, अतः ऐसा भी अभिप्राय हो की मूलाचार की ताड़पत्रीय प्रतिसंख्या ५६ के अंत में आचार्य सकता है कि पर्वाचार्यनिबद्ध जो आराधना लुप्त थी, उसे उन्होंने वसनन्दी की टीका की समाप्ति में एक प्रशस्ति-पद्य दिया गया अपनी शक्ति से जीवित किया है।४ है, जिसमें आचार्य कुन्दकुन्द रचित होने की सूचना है १०। पं. जैन परंपरा की किसी पट्टावली आदि में न तो शिवार्य कैलाशचंद्र शास्त्री ने लिखा है- इसमें संदेह नहीं कि मूलाचार . नाम ही मिलता है और न उनके गुरुजनों का नाम मिलता है। कुन्दकुन्द का ऋणी है, किन्तु कुन्दकुन्दरचित प्रतीत नहीं होता।। भगवज्जिन सेनाचार्य ने अपने महापुराण के प्रारंभ में एक कुन्दकुन्दरचित नियमसार, प्रवचनसार, समयसार आदि ग्रंथों में। शिवकोटि नामक आचार्य का स्मरण किया है-- andaridrivarsansarsanirasdaridroidasibordorial ४९ /Horarilarinatomotoraamsudrinivariombidroidroiddioran Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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