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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन अपने भावों को स्थिर करो, उससे जीव का श्रामण्य गुण पूर्ण अर्थात् जिस प्रकार सूर्य के ताप और प्रकाश एक साथ होता है। सभी पुराणपुरुष इस प्रकार आवश्यक कार्य करके प्रकट होते हैं। उसी प्रकार केवलज्ञानी के ज्ञान और दर्शन एक अप्रमत्त आदि स्थानों को प्राप्त करके केवली हुए हैं। आवश्यक साथ होते हैं। कुन्दकुन्द के इसी उदाहरण को बाद के दार्शनिकों श्रमण और श्रावक दोनों के लिए करणीय है।
ने अपनाया है। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि छद्मस्थ संसारी मुलाचार तथा आवश्यकसत्र में सामायिक, चतविंशति जीवों के दर्शन पूर्वक ही ज्ञान होता है, क्योंकि उनके दो उपयोग स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कार्योत्सर्ग ये छह एक साथ नहीं होते। आवश्यकों के नाम बताए गए हैं और इनका क्रम भी यही रखा
आत्मा, ज्ञान और दर्शन का स्वपरप्रकाशकत्व गया है, जो कुन्दकुन्द से भिन्न है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि
नियमसार में आत्मा के स्वपर-प्रकाशक स्वरूप का स्पष्ट कुन्दकुन्द-कथित आवश्यकों की परंपरा प्राचीन है और वह
विवेचन हुआ है। इसी सन्दर्भ में कहा गया है कि यदि कोई ज्ञान उनके समय तक विद्यमान थी। बाद में अन्य ग्रन्थकारों ने उसे परिमार्जित और संशोधित किया। परंपरा इस समय प्रचलित है।
को परप्रकाशक, दर्शन को आत्मप्रकाशक और आत्मा को
स्वपरप्रकाशक मानता है तो ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञान परप्रकाशक केवली(सर्वज्ञ'
है तो ज्ञान से दर्शन भिन्न हुआ, इसलिए दर्शन परद्रव्यगत नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द ने जैन दर्शन की सर्वज्ञता विषयक आत्मा परप्रकाशक है तो आत्मा से दर्शन भिन्न होगा, इसलिए अवधारणा को निश्चय और व्यवहार नय की दृष्टि से स्पष्ट करते दर्शन परद्रव्यगत् नहीं है। व्यवहारनय से ज्ञान परप्रकाशक है, हुए कहा है कि--
इसलिए दर्शन भी परप्रकाशक है तथा व्यवहारनय से आत्मा जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं।।
परप्रकाशक है, इसलिए दर्शन भी परप्रकाशक है। निश्चयनय से केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं।।
ज्ञान आत्म (स्व) प्रकाशक है, इसलिए दर्शन भी आत्म. (स्व). नियमसार-१५९
प्रकाशक है तथा निश्चयनय से आत्मा स्वप्रकाशक है, इसलिए
दर्शन भी स्वप्रकाशक है। अर्थात् केवली भगवान (सर्वज्ञ) व्यवहारनय से सब कुछ जानते और देखते हैं, किन्तु निश्चय से वह केवल अपने आत्मा
आगे और भी कहते हैं कि केवली भगवान आत्मस्वरूप को को ही जानते और देखते हैं।
देखते हैं, लोकालोक को नहीं, यदि कोई ऐसा कहता है तो उसका
क्या दोष है? और यदि कोई ऐसा कहे कि केवली भगवान लोकालोक सर्वज्ञता विषयक विचार कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।
को जानते हैं, अपने को नहीं जानते हैं, तो भी कोई दोष नहीं है। सर्वज्ञ तीनों लोकों और तीनों कालों के समस्त द्रव्यों की सभी पर्यायों को एक साथ देखता और जानता है। षट्खण्डागम सूत्र
ज्ञान जीव का स्वरूप है इसलिए आत्मा अपने आत्मस्वरूप
को जानता है यदि ज्ञान अपने आत्मा को नहीं जानता है तो वह में भी ऐसा ही कहा गया है। इसलिए निश्चयनय का यह कथन कि वास्तव में वह अपने को ही जानता है, विरोधी प्रतीत होता
आत्मा से अलग हो जाएगा। आत्मा को ज्ञान जानो, ज्ञान को है, किन्तु कुन्दकुन्द के ज्ञान-ज्ञेय विषयक अवलोकन से इसका
आत्मा जानो, इसमें संदेह नहीं है। इसलिए ज्ञान तथा दर्शन समाधान प्राप्त हो जाता है। प्रवचनसार में केवलज्ञान का विस्तृत
स्वपर-प्रकाशक है। कुन्दकुन्द ऐसे पहले आचार्य हैं, जिन्होंने विवेचन उपलब्ध है। निश्चय और व्यवहारनय से सर्वज्ञ के ज्ञान
परंपरा से प्राप्त आत्मा, ज्ञान और दर्शन के स्वपर-प्रकाशत्व और दर्शन का कथन कुन्दकुन्द से पूर्व उपलब्ध नहीं है।
का स्पष्ट विवरण दिया है। उत्तरकालीन सभी दार्शनिकों के लिए केवली के ज्ञान और दर्शन युगपत् होते हैं। इसे कुन्दकुन्द
कुन्दकुन्द का उक्त विचार अनुकरणीय रहा है। ने निम्न प्रकार कहा है --
सप्तभंगी - जुगवं वट्टइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा।
जैन दर्शन प्रत्येक वस्तु को अनन्त धर्मात्मक मानता है, दिणयरपयासतावं जह वट्टा तह मुणेयव्वं ।।
इसलिए इसके वस्तुस्वरूप-प्रतिपादक सिद्धान्त को अनेकान्त नियमसार--१६०
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