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________________ - यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - अग्रसर हो रहे थे, उनका शरीर इस भयंकर शीत के प्रकोप का सामना कुछ मुनियों ने तो महावीर की परम्परा में सम्मिलित होते समय करने में कठिनाई का अनुभव कर रहा था। ऐसे सभी मुनियों के द्वारा अचेलकत्व ग्रहण किया, किन्तु कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अचेलता यह भी सम्भव नहीं था कि वे संथारा ग्रहण कर उन शीतलहरों का को ग्रहण नहीं किया। सम्भव है कुछ पापित्यों को सचेल रहने की सामना करते हुए अपने प्राणोत्सर्ग कर दें। ऐसे मुनियों के लिये अपवाद अनुमति देकर सामायिक चारित्र के साथ महावीर के संघ में सम्मिलित मार्ग के रूप में शीत-निवारण के लिये एक ऊनी वस्त्र रखने की अनुमति किया गया होगा। इस प्रकार महावीर के जीवनकाल में या उसके कुछ दी गई। ये मुनि रहते तो अचेल ही थे, किन्तु रात्रि में शीत-निवारणार्थ पश्चात् निर्ग्रन्थ संघ में सचेल-अचेल दोनों प्रकार की एक मिली-जुली उस ऊनी-वस्त्र (कम्बल) का उपयोग कर लेते थे। यह व्यवस्था स्थविर ___ व्यवस्था स्वीकार कर ली गयी थी और पार्श्व की परम्परा में प्रचलित या वृद्ध मुनियों के लिये थी और इसलिये इसे 'स्थविरकल्प' का नाम सचेलता को भी मान्यता प्रदान कर दी गयी। दिया गया। मथुरा से प्राप्त ईस्वी सन् प्रथम-द्वितीय शती की निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि महावीर के निर्ग्रन्थ संघ जिन-प्रतिमाओं की पाद-पीठ पर या फलकों पर जो मुनि प्रतिमाएँ में प्रारम्भ में तो मुनि की अचेलता पर ही बल दिया गया था, किन्तु अंकित हैं वे नग्न होकर भी कम्बल और मुखवत्रिका लिये हुए हैं। कालान्तर में लोक-लज्जा और शीत-परीषह से बचने के लिये मेरी दृष्टि में यह व्यवस्था भी आपवादिक ही थी। आपवादिक रूप में वस्त्र-ग्रहण को मान्यता प्रदान कर दी गयी। हम देखते हैं कि महावीर का जो मुनि-संघ दक्षिण भारत या श्वेताम्बर-मान्य आगमों और दिगम्बरों द्वारा मान्य यापनीय-ग्रन्थों दक्षिण मध्य-भारत में रहा उसमें अचेलता सुरक्षित रह सकी, किन्तु में आपवादिक स्थितियों का भी उल्लेख है, जिनमें मुनि वस्त्र-ग्रहण जो मुनि-संघ उत्तर एवं पश्चिमोत्तर भारत में रहा उसमें शीत-प्रकोप कर सकता था। की तीव्रता की देश-कालगत परिस्थितियों के कारण वस्त्र का प्रवेश श्वेताम्बर-परम्परा द्वारा मान्य स्थानांगसूत्र (३/३/३४७) में वस्त्रहो गया। आज भी हम देखते हैं कि जहाँ भारत के दक्षिण और ग्रहण के निम्नलिखित तीन कारणों का उल्लेख उपलब्ध होता हैदक्षिण-मध्य क्षेत्र में दिगम्बर-परम्परा का बाहुल्य है, वहाँ पश्चिमोत्तर १. लज्जा के निवारण के लिये (लिंगोत्थान होने पर लज्जित भारत में श्वेताम्बर परम्परा का बाहुल्य है। वस्तुत: इसका कारण जलवायु न होना पड़े, इस हेतु)। ही है। दक्षिण में जहाँ शीतकाल में आज भी तापमान २५-३० डिग्री २. जुगुप्सा (घृणा) के निवारण के लिये (लिंग या अण्डकोष सेल्सियस से नीचे नहीं जाता, वहाँ नग्न रहना कठिन नहीं है किन्तु विद्रूप होने पर लोग घृणा न करें, इस हेतु)। हिमालय के तराई क्षेत्र, पश्चिमोत्तर भारत एवं राजस्थान जहाँ तापमान ३. परीषह (शीत-परीषह) के निवारण के लिये। शून्य डिग्री से भी नीचे चला जाता है, वहाँ शीतकाल में अचेल रहना स्थानांगसूत्र में वर्णित उपर्युक्त तीन कारणों में प्रथम दो का समावेश कठिन है। पुनः एक युवा साधक को शीत सहन करने में उतनी कठिनाई लोक-लज्जा में हो जाता है, क्योंकि जुगुप्सा का निवारण भी एक नहीं होती जितनी कि वृद्ध तपस्वी साधक को। अत: जिन क्षेत्रों में प्रकार से लोक-लज्जा का निवारण ही है। दोनों में अन्तर यह है कि · शीत की अधिकता थी उन क्षेत्रों में वस्त्र का प्रवेश स्वाभाविक हो लज्जा का भाव स्वतः में निहित होता है और घृणा दूसरों के द्वारा था। आचारांग में हमें ऐसे मुनियों के उल्लेख उपलब्ध हैं जो शीतकाल की जाती है, किन्तु दोनों का उद्देश्य लोकापवाद से बचना है। में सर्दी से थर-थर काँपते थे। जो लोग उनके आचार (अर्थात् आग इसी प्रकार दिगम्बर-परम्परा में मान्य, किन्तु मूलत: यापनीयजलाकर शीत-निवारण करने के निषेध) से परिचित नहीं थे, उन्हें यह ग्रन्थ भगवती-आराधना (७६) की टीका में निम्नलिखित तीन शंका भी होती थी कि कहीं उनका शरीर कामावेग में तो नहीं काँप आपवादिक स्थितियों में वस्त्र-ग्रहण की स्वीकृति प्रदान की गयी है--- रहा है। यह ज्ञात होने पर कि इनका शरीर सर्दी से काँप रहा है, १. जिसका लिंग (पुरुष-चिह्न) एवं अण्डकोष विद्रूप हो। कभी-कभी वे शरीर को तपाने के लिये आग जला देने को कहते २. जो महान् सम्पत्तिशाली अथवा लज्जालु हो। थे, जिसका उन मुनियों को निषेध करना होता था। इस प्रकार यह ३. जिसके स्वजन मिथ्यादृष्टि हों। स्पष्ट है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र-प्रवेश के लिये उत्तर यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में निर्ग्रन्थ संघ में मुनि के लिये भारत की भयंकर सर्दी भी एक मुख्य कारण रही है। वस्त्र-ग्रहण एक आपवादिक व्यवस्था ही थी। उत्सर्ग या श्रेष्ठ मार्ग ४. महावीर के निम्रन्थ-संघ में वस्त्र के प्रवेश का चौथा कारण तो अचेलता को ही माना गया था। श्वेताम्बर-परम्परा द्वारा मान्य आचारांग, पार्श्व की परम्परा के मुनियों का महावीर की परम्परा में सम्मिलित होना स्थानांग और उत्तराध्ययन में न केवल मुनि की अचेलता के प्रतिपादक भी है। यह स्पष्ट है कि पार्श्व की परम्परा के मुनि सचेल होते थे। सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं अपितु अचेलता की प्रशंसा भी उपलब्ध होती वे अधोवस्त्र और उत्तरीय दोनों ही धारण करते थे। हमें सूत्रकृतांग, है। उनमें भी वस्त्र-ग्रहण की अनुमति मात्र लोक-लज्जा के निवारण उत्तराध्ययन, भगवती, राजप्रश्नीय आदि में न केवल पार्श्व की परम्परा और शीत-निवारण के लिये ही है। आचारांग में चार प्रकार के मुनियों के मुनियों के उल्लेख मिलते हैं अपितु उनके द्वारा महावीर के संघ के उल्लेख हैं-१. अचेल, २. एक वस्त्रधारी, ३. दो वस्त्रधारी, में पुन: दीक्षित होने के सन्दर्भ भी मिलते हैं। इन सन्दर्भो का सूक्ष्मता ४. तीन वस्त्रधारी। से विश्लेषण करने पर यह ज्ञात होता है कि पार्श्व की परम्परा के १. इनमें अचेल तो सर्वथा नग्न रहते थे। ये जिनकल्पी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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