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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - कन्फ्यूसियस, ग्रीस में पाइथागोरस, सुकरात और प्लेटो तथा आचारांग में भी महावीर के समकालीन चार वादों का ईरान और परसिया में जरथुस्त्र आदि अपनी नई-नई दार्शनिक उल्लेख भिन्न प्रकार से उपलब्ध है - 'आयावादी, लोयावादी, विचारधाराएँ प्रस्तुत कर रहे थे। ऐसे समय में जबकि प्रत्येक मत कम्मावादी और किरियावादी।२३१ निशीथचूर्णि में महावीर के 'सयं सयं पसंसत्ता गरहंता परं वयं' अर्थात् अपने पंथ एवं मान्यताओँ युग के निम्नांकित दर्शन एवं दार्शनिकों का उल्लेख है।२३२ को श्रेष्ठ बताकर दूसरों की निन्दा कर रहा था, उस समय १. आजीवक, २. ईसरमत, ३. उलूग, ४. कपिलमत, ५. विभिन्न मतों के आपसी वैमनस्य को दूर करने के लिए वर्धमान कविल, ६. कावाल, ७. कावालिय, ८. चरग, ९. तच्चन्निय, महावीर ने अनेकांत दर्शन की विचारधारा प्रस्तुत की थी। १०. परिव्वायग, ११. पंडुरंग, १२. बोडित, १३. भिच्छुग, १४. बौद्ध-ग्रंथ 'सत्तनिपात' में उल्लेख है कि उस समय ६३ भिक्खू, १५. वेद। १६. सक्क, १७. सरक्ख, १८. सुतिवादी, श्रमण-सम्प्रदाय विद्यमान थे।२२४ जैनग्रन्थ सूत्रकृतांग, स्थानांग १९. सेयवड, २०. सेयभिक्खू, २१. शाक्यमत, २२. हदुसरख। और भगवती में भी उस युग के धार्मिक मतवादों का उल्लेख बौद्ध-सम्प्रदाय में बुद्ध के समकालीन निम्नांकित छह श्रमण उपलब्ध है।२२५ सूत्रकृतांग में उन सभी वादों का वर्गीकरण -सम्प्रदायों एवं उनके प्रतिपादक आचार्यों का उल्लेख है।२३३ निम्नांकित चार प्रकार के समवसरण में किया गया है२२६ - १. अक्रियावाद - पूरणकाश्यप १. क्रियावाद, २. अक्रियावाद, ३. विनयवाद, ४. अज्ञानवाद। २. नियतिवाद - मक्खलिगोशालक क्रियावाद - क्रियावादियों का कहना है कि आत्मा पाप-पुण्य ३. उच्छेदवाद - अजितकेशकंबल आदि का कर्ता है। ४. अन्योन्यवाद - प्रकुधकात्यायन अक्रियावाद - सूत्रकृतांग में अनात्मवाद, आत्मा के अकर्तृत्ववाद, मायावाद और नियतिवाद को अक्रियावाद कहा ५. चातुर्यामसंवरवाद - निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र गया है।२२७ ६. विक्षेपवाद - संजय बेलट्ठिपुत्र विनयवाद - विनयवादी बिना भेदभाव के सबके साथ विनयपूर्वक बौद्ध-साहित्य में अंकित उपर्युक्त ६ आचार्यों को तीर्थंकर व्यवहार करता है, अर्थात् सबकी विनय करना ही उसका सिद्धान्त है। कहा गया है। इनके एक निगण्ठनाटपुत्त स्वयं महावार ही है।३० अज्ञानवाद - अज्ञानवादियों का कहना है कि पूर्ण ज्ञान किसी को महावीर के उपदेश और उनका शैशिष्ट्य होता नहीं है और अपूर्ण ज्ञान ही भिन्न मतों का जनक है, अर्थात् ज्ञानोपार्जन व्यर्थ है और अज्ञान में ही जगत् का कल्याण है। जैनों के अनुसार तीर्थंकर महावीर ने किसी न) दर्शन या धर्म की स्थापना नहीं की, अपितु पार्श्वनाथ की निर्ग्रन्थ-परम्परा सूत्रकृतांग के अनुसार अज्ञानवादी तर्क करने में कुशल में प्रचलित दार्शनिक मान्यताओँ और आचार सम्बन्धी व्यवस्थाओं होने पर भी असम्बद्ध-भाषी हैं, क्योंकि वे स्वयं संदेह से परे नहीं हो सके हैं।२२८ को किञ्चित् संशोधित कर प्रचारित किया। विद्वानों की यह । मान्यता है कि महावीर की परम्परा में धर्म और दर्शन सम्बन्धी जैन-आगम-ग्रन्थ उत्तराध्ययन में कहा गया है कि क्रियावाद विचार जहाँ पार्श्वनाथ की परम्परा से गृहीत हुए, वहीं आचार ही सच्चा पुरुषार्थवाद है, वही धीर पुरुष है, जो क्रियावाद में और साधना-विधि को मुख्यतया आजीवक-परम्परा से गृहीत विश्वास रखता है और अक्रियावाद का वर्णन करता है।२२९ ।। किया गया। जैन-ग्रन्थों से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि जैन-दर्शन को सम्यक् क्रियावादी इसलिए कहा गया है, महावीर ने पार्श्वनाथ की आचार-परम्परा में कई संशोधन किए क्योंकि वह एकांत दृष्टि नहीं रखता है। आत्मा आदि तत्त्वों में थे। सर्वप्रथम उन्होंने पार्श्वनाथ के चातुर्याम-धर्म में ब्रह्मचर्य विश्वास करने वाला ही क्रियावाद (अस्तित्ववाद) का निरूपण को जोड़कर पंच महाव्रतों या पंचयाम-धर्म का प्रतिपादन किया। कर सकता है।२३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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