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कहा गया है
दश कामसमुत्थानि तथाऽष्टौ कोधजानि च । व्यसनानि दुरन्तानि यत्नेन परिवर्जयेत् ॥ मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियो मदः । तीर्थत्रिकं वृथाऽट्य च कामजो दशको गणः ॥ शून्यं साहसं द्रोहे ईर्ष्याऽसूयार्थदूषणम्। वाग्दण्डजं च पारूष्यं क्रोधजोऽपि गणोष्टकः ।।
अठारह व्यसन में दस व्यसन कामज है और आठ व्यसन कोधज हैं। जो इस प्रकार है
दस कामज व्यसन - दिन का शयन, (४) (७) नृत्य सभा, (८) (१०) व्यर्थ भटकना ।
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ -
आठ क्रोधज व्यसन - (१) चुगली खाना, (२) अति साहस करना, (३) द्रोह करना, (४) ईर्ष्या, (५) असूया, (६) अर्थ दोष, (७) वाणी से दण्ड और कठोर वचन ।
(१) मृगया, (२) अक्ष (जुआ), (३) परनिन्दा, (५) परस्त्री सेवन, (६) मद, गीत सभा, (९) वाद्य की महफिल और
इस संबंध में जैन साहित्य का आलोडन करते हैं तो पाते हैं कि जैनाचार्य मुख्य रूप से सात प्रकार के व्यसन बताते हैं ।
यथा
द्यूतं 'च मांसं च सुरा च वेश्या पापद्धि चौर्य परदारसेवा । एतानि सप्तव्यसनानि लोके घोरातिघोरं नरकं नयन्ति । सात व्यसन इस प्रकार हैं
(१) जुआ, (२) मांसाहार, (३) मद्यपान, (४) वेश्यागमन, (५) शिकार, (६) चोरी और (७) पर स्त्रीगमन । यदि हम सूक्ष्मता से विचार करें तो जितने भी व्यसन हैं, वे सभी इन सात व्यसनों में आ जाते हैं।
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वर्तमान युग में कुछ नवीन प्रवृत्तियां पाई जाती हैं। जैसे अश्लील साहित्य पढ़ना, अश्लील चलचित्र देखना, तम्बाकू सेवन, गुटखे के रूप में या बीड़ी, सिगरेट के रूप में, विभिन्न प्रकार के गुटखों का सेवन आदि। ये सब भी व्यसनों की भाँति ही हानिप्रद है। प्रारंभ में तो व्यसन सामान्य से लगते हैं, किन्तु आगे चलकर ये उग्र रूप धारण कर लेते हैं। व्यक्ति को इनकी बुराई उस समय दिखाई देती है, जब वह कैंसर अथवा व्यसन जन्य किसी भयंकर रोग से ग्रस्त हो जाता है और उपचार कराने
आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म.
के बाद भी ये रोग ठीक नहीं हो पाते हैं। व्यक्ति को अपने सामने अपनी मृत्यु दिखाई देती है। तब वह पश्चात्ताप करता है। और उस घड़ी को कोसता है जब उसने व्यसन प्रारंभ किया, किन्तु अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। समय रहते आदमी को चेत जाना चाहिए। पहली बात तो यह कि उसे किसी व्यसन में पड़ना ही नहीं चाहिए और यदि किसी कारणवश उसे कोई व्यसन लग गया है तो तत्काल उसे मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए। किन्तु व्यक्ति ऐसा न करते हुए उसमें और अधिक डूबता चला जाता है। उसकी आँख तो तब खुलती है जब उसे अपने पतन का गर्त दिखाई देता है। अब हम जिन सात व्यसनों का नामोल्लेख ऊपर कर चुके हैं, उनके विषय में संक्षिप्त रूप में विचार करेंगे।
जुआ - जुआ का जन्म कैसे हुआ? यह कहना तो कठिन है। किन्तु अनुमान यह लगाया जा सकता है कि बिना किसी श्रम के सम्पत्ति प्राप्त करने की लालसा से इसका जन्म हुआ होगा। अथवा मनोरंजन के लिए खेले जाने वाले किसी खेल के माध्यम से इसकी उत्पत्ति हुई होगी। कुछ भी हो, यह एक ऐसा व्यसन है कि जिसे भी एक बार इसकी आदत या यों कहें लत लग जाती
वह इसमें और अधिक डूबता चला जाता है। हारने के बाद भी व्यक्ति दाँव पर दाँव लगाता चला जाता है। अपना सब कुछ खो जाने के पश्चात् वह चिंताग्रस्त हो जाता है। ऋण लेकर भी जुए पर दाँव लगाता है। उसकी आशा मृग मरीचिका ही सिद्ध होती है। धन प्राप्त करने की लालसा में वह दाँव पर दाँव लगाकर अपने आपको बर्बाद कर लेता है।
हमारे ऋषिमुनियों ने जुए को त्याज्य माना है। तभी तो ऋग्वेद में कहा गया है- अक्षैर्मा दिव्यः । (१०.३४.१३)
सूत्रकृतांग सूत्र ९ / १० में चौपड़ अथवा शतरंज के रूप में जुआ खेलना मना किया गया है। जुए को लोभ का बालक भी कहा गया है और यह कहा गया है कि यह फिजूलखर्ची का माता-पिता है। जुआ किसी भी रूप में खेला जावे, वह असाध्य रोग है । यदि इतिहास के पृष्ठ पलटेंगे तो हमें ज्ञात हो जाएगा कि जुआ प्राचीन काल में भी प्रचलित था और न केवल सामान्य जन पतन के गर्त में समा चुके हैं। महाभारत का उदाहरण हमारे सामने है। युधिष्ठिर ने अंधा होकर अपनी पत्नी द्रौपदी तक को दाँव पर लगा दिया था। इससे अधिक व्यक्ति का पतन और sanna bf ho ja
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