SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 778
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार चित्त का के पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार प्रकारों की चर्चा नहीं प्रमत्त संयत में निदान को छोड़कर अर्थात् अप्राप्त की प्राप्ति की आकांक्षा है। जबकि परवर्ती साहित्य में इनकी विस्तृत चर्चा मिलती है। सर्वप्रथम को छोड़कर अन्य तीन ही आर्तध्यान होते हैं- स्थानांगसूत्र में इनके निम्न इनका उल्लेख योगीन्दु के योगसार और देवसेन के भावसंग्रह में मिलता चार लक्षणों का उल्लेख हुआ है-७४ ।। है।६७ मुनि पद्मसिंह ने ज्ञानसार में अर्हन्त के संदर्भ में धर्मध्यान के - उच्च स्वर से रोना। अन्तर्गत पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ की ही चर्चा की है, किन्तु २) शोचनता - दीनता प्रकट करते हुए शोक करना। उन्होंने रूपातीत का कोई स्पष्ट निर्देश नहीं किया है।६८ इस विवेचना में। एक समस्या यह भी है कि पिण्डस्थ और रूपस्थ में कोई विशेष अन्तर ३) तेपनता - आँसू बहाना। नहीं दिखाया गया है। परवर्ती साहित्य में आचार्य नेमिचन्द्र के द्रव्यसंग्रह ४) परिदेवनता करुणा-जनक विलाप करना। में ध्यान के चार भेदों की चर्चा के पश्चात् धर्मध्यान के अन्तर्गत पदों के ध्यान - रौद्र ध्यान आवेगात्मक अवस्था है। रौद्र . जाप और पंचपरमेष्ठि के स्वरूप का भी निर्देश किया गया है।६९ इसके ध्यान के भी चार भेद किये गये हैं७५ टीकाकार ब्रह्मदेव ने यह भी बताया है कि जो ध्यान मंत्र-वाक्यों के १) हिंसानुबंधी - निरन्तर हिंसक प्रवृत्ति में तन्मयता करानेवाली आश्रित होता है वह पदस्थ है, जिस ध्यान में 'स्व' या आत्मा का चित्त की एकाग्रता। चिन्तन होता है वह पिंडस्थ है, जिसमें चेतना-स्वरूप या विद्रूपता का विचार किया जाता है वह रूपस्थ है तथा निरंजन व निराकार का ध्यान २) मृषानुबंधी - असत्य भाषण करने सम्बन्धी चित्त की ही रूपातीत है।५० अमितगति७१ ने अपने श्रावकाचार में ध्येय या ध्यान एकाग्रता। के आलम्बन की चर्चा करते हुए पिण्डस्थ आदि इन चार प्रकार के ३) स्तेनानुबन्धी - निरन्तर चोरी करने- कराने की प्रवृत्ति सम्बन्धी ध्यानों की विस्तार से लगभग (२७ श्लोकों में) चर्चा की है। यहाँ चित्त की एकाग्रता पिण्डस्थ से पहले पदस्थ ध्यान को स्थान दिया गया है और उसकी ४) संरक्षणानुबन्धी - परिग्रह के अर्जन और संरक्षण सम्बन्धी विस्तृत चर्चा भी की गई है। शुभचन्द्र७२ ने ज्ञानार्णव में पदस्थ आदि तन्मयता। ध्यान के इन प्रकारों की पूरे विस्तार के साथ (लगभग २७ श्लोकों में) कुछ आचार्यों ने विषयसंरक्षण का अर्थ बलात् ऐन्द्रिक भोगों चर्चा की है। परवर्ती आचार्यों में वसुनन्दि, हेमचन्द्र, भास्करनन्दि आदि का संकल्प किया है, जबकि कुछ आचार्यों ने ऐन्द्रिक विषयों के संरक्षण ने भी इनकी विस्तार से चर्चा की है। पुनः पार्थिवी, आग्नेयी, मारुति, में उपस्थित करता के भाव को ही विषयसंरक्षण कहा है। स्थानांग में वारुणी और तत्त्वभू ऐसी पिण्डस्थ ध्यान की जो पाँच धारणाएँ कही गई इसके भी निम्न चार लक्षणों का निर्देश है।७६ हैं उनका भी प्राचीन ग्रन्थों में कहीं उल्लेख नहीं मिलता। तत्त्वार्थसूत्र और १) उत्सन्नदोष . हिंसादि किसी एक पाप में निरन्तर प्रवृत्ति उसकी प्राचीन टीकाओं में लगभग ६ठी-७वीं शती तक इनका अभाव करना। है, इससे यही सिद्ध होता है कि ध्यान के प्रकारों, उपप्रकारों, लक्षणों, आलम्बनों आदि की जो चर्चा जैन-परम्परा में हुई है. वह क्रमशः २) बहुदोष - हिंसादि सभी पापों के करने में संलग्न विकसित होती रही है और उन पर अन्य परम्पराओं का प्रभाव भी है। रहना। प्राचीन आगमिक साहित्य में स्थानांगसूत्र में ध्यान के प्रकारों, ३) अज्ञानदोष - कुसंस्कारों के कारण हिंसादि अधार्मिक कार्यों लक्षणों, आलम्बनों में अनुप्रेक्षाओं का जो विवरण मिलता है, वह इस को धर्म मानना। प्रकार है: ४) आमरणान्त दोष - मरणकाल तक भी हिंसादि क्रूर कर्मों को (१) आर्तध्यान- आर्तध्यान हताशा की स्थिति है। स्थानांग के करने का अनुताप न होना। अनुसार इस ध्यान के चार उपप्रकार हैं।७३ अप्रिय वस्तु के प्राप्त होने पर (३) धर्मध्यान- जैन आचार्यों ने साधना की दृष्टि से केवल उसके वियोग की सतत् चिन्ता करना यह प्रथम प्रकार का आर्तध्यान है। धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ही ध्यान की कोटि में रखा है। यही कारण दुःख के आने पर उसे दूर करने की चिन्ता करना यह आर्तध्यान का है कि आगमों में इनके भेद और लक्षणों की चर्चा के साथ-साथ इनके दूसरा रूप है। प्रिय वस्तु का वियोग हो जाने पर उसकी पुन: प्राप्ति के आलम्बनों और अनुप्रेक्षाओं का भी उल्लेख मिलता है। स्थानांगसूत्र आदि लिए चिन्तन करना तीसरे प्रकार का आर्तध्यान है और जो वस्तु प्राप्त में धर्मध्यान के निम्न चार भेद बताये गये हैं।७६ । नहीं है उसकी प्राप्ति की इच्छा करना चौथे प्रकार का आर्त ध्यान है। १) आज्ञाविचय- वीतराग सर्वज्ञप्रभु के आदेश और उपदेश तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार यह आर्त ध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत के सम्बन्ध में आगमों के अनुसार चिन्तन करना। में होता है। इसके साथ ही मिथ्यादृष्टियों में भी इस ध्यान का सद्भाव होता २) अपायविचय- दोषों और उनके कारणों का चिन्तन कर है। सैद्धान्तिक दृष्टि से मिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि तथा देशविरत उनसे छुटकारा कैसे हो, इस सम्बन्ध में विचार करना। दूसरे शब्दों में सम्यम्दृष्टि में आर्तध्यान के उपर्युक्त चारों ही प्रकार पाये जाते हैं, किन्तु हेय क्या है? इसका चिन्तन करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy