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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म का प्रदर्शन ही कर डाला। क्या शत्रुओं का नाश करने वाला का ही प्रयोग है, नमस्कार के उपधान के अधिकार में। अरहंत अत्याचारी भी अरिहंत संज्ञा को प्राप्त होगा? पर वास्तव में और अरुहंत का अर्थ इस प्रकार है - आपके द्वारा प्रदर्शित यह अर्थ अरिहंत से निकलता ही नहीं है।
'अर्हन्ति देवादिकृतां पूजामित्यहन्तः' हमने आगे जो श्रीआवश्यकनियुक्ति और श्रीविशेषावश्यक की
अरहंत यानी देवादि द्वारा पूजित। गाथाएँ उद्धृत की हैं। उनमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आत्मा न रोहति भूयः संसारे समुत्पद्यते इत्यरुः, संसारकारकानां के कर्म रूप जो शत्रु उनका अत्यंताभाव करने वाले (पराजय कर्मणां निर्मूलः कर्षितत्वात्। अजन्मनि सिद्धे। करने वाले) को अरिहंत कहा जाता है। उनको हम नमस्कार
संसार में पुनः जो उत्पन्न नहीं होते हैं, उन्हें अरुह कहते हैं करते हैं। कहाँ आम और कहाँ आक ? क्या कभी आक भी आम्र कहलाएगा? कहाँ सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग अरिहंत और
- कर्मों का समूल नाश करने से उनका पुनर्जन्म नहीं होता। कहाँ अत्याचारी आताताई डाकू ? चिंतामणि और पाषाण को
उक्त दोनों पाठों से यह सिद्ध होता है कि अरहंत यानी एक समान कैसे गिना जा सकता है ? जो लोग इस प्रकार पूजा के योग्य और जिन्होंने समस्त कर्मों को निर्मल कर दिया मनचाहा अर्थ लिखकर अपना अभिमत सिद्ध करने के लिए
है, वे अरुह यानी सिद्ध हैं। यहाँ जरा ममत्व को छोड़कर सोचो बेकार का भ्रम खडा करते हैं वे ज्ञात होता है. ममत्व के झठे मोह कि जो आत्मा कुछ काल पूर्व हमारे जैसे ही सकर्मा एवं संसारी में कर्मों का बंध ही प्राप्त करते हैं। श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी,
आत्मा थी। वही पूजा के योग्य कैसे बन गई ? तब हम इसके श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, विद्वशिरोमणि श्री हरिभद्रसूरि,
उत्तर में झट कह देंगे कि - अनादिकाल से आत्मा के साथ जो वृत्तिकार श्री मलयगिरीजी आदि अनेक पूर्वाचार्यों ने भी अरिहंत
कर्मों का मैल था, यानी आत्मा के गुणों के घातक जो कर्म थे, का यही अर्थ किया है। क्या वह असत्य है ? नहीं वह असत्य
उनको सम्यग् क्रियानुष्ठानों द्वारा आत्मा से दूर कर दिया गया,
जिससे वे पूजन के योग्य हो जाती हैं। कर्म आत्मा के दुश्मन नहीं सत्य है। हम अपने अभिमत की पुष्टि करने के लिए जो कपोलकल्पित अर्थ करते हैं, वह अप्रामाणिक है। जो लोग थोड़े ही हैं, जो उनका हनन किया जाता है ? अरिहंत शब्द का मनमाना अर्थ कर उसमें अपने अवास्तविक ।
क्या हम आत्मा के ज्ञानादि गुणों के घातक कों को तकों का क्षेपन करते हैं। उनको पूर्वाचार्यों के शास्त्रों का मनन घातक नहीं मानते ? जो कह दिया जाता है कि कर्म आत्मा के करना चाहिए। मनन करते समय ममत्व और दष्टिराग का पटल दुश्मन नहीं है। कैसे नहीं हैं ? शास्त्रकारों ने तो कर्मों को आत्मा आँखों से हटा लेना चाहिए, क्योंकि कामराग और स्नेहराग को
के दुश्मन कहा ही है, क्योंकि कर्म आत्मा के ज्ञानादि गुणों को हटाना तो सरल है, परन्तु दृष्टिराग बड़ी कठिनता से दूर होता है। अवतरित जो करते हैं। शास्त्रों में लिखा है कि - तभी तो श्रीमद् हेमचन्द्रसूरिजी ने वीतरागस्तोत्र में लिखा है कि - "कम्मरिवु जएण सामाइयं लब्भति" कामरागस्नेहरागानीषत्करनिवारणौ।
श्रीआवश्यकसूत्रचूर्णि १:अ. दृष्टिरागस्तु पापीयान्, दुरुच्छेदः सतामपि ।।१०।। "कामक्रोधलोभमानमोहाख्ये आन्तरशत्रषट्के" यदि उक्त स्थिति वाले होकर सत्य का अवलोकन किया
श्रीसूयगडांगसूत्र। जाए, तो अवश्य ही सत्य की प्राप्ति हो जाती है।
"रागद्वेष कषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गघातिकर्मशत्रून् जितयन्तो जिनः" प्रश्र - अरिहंत, अरुहंत और अरहंत ऐसे तीन पद व्याकरण
श्री जीवाभिगमसूत्र , २ प्रतिपत्ति, से 'अर्ह' धातु से बनते हैं, तो फिर उन तीनों में से यहाँ अरिहंत । निघ्नन्परीषहचमूमुपसर्गान् प्रतिक्षिपन्। ही क्यों लिया? अरहंत और अरुहंत क्यों नहीं लिए? प्रासोऽसि शमसौहित्य, महतां कापि वैदुषी ।।१।।
उत्तर - अरहंत और अरुहंत इन दो पदों का पाठभेद के अरक्ता भुक्तवान्मुक्तमाद्वष्टा हतवाान्द्वषः रूप में कहीं-कहीं उपयोग हुआ है, परन्तु वह अन्य अर्थों में। न
अहो? महात्मनां कोऽपि, महिमा लोकदुर्लभः ।।२।।
। कि इस अर्थ में और नवकार में। महानिशीथसूत्र में अरिहंताणं
श्रीवीतरागस्तोत्र ११वा प्रकाश। dadiramidaidowdriandirandiraniramidnind ६ Hariridiodustarsansaroriandidatabasinidian
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