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________________ जैन आगमों की मूलभाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी? प्रो.(डॉ.,सागरमल जैन पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी...2 वर्तमान में 'प्राकृतविद्या' नामक शोधपत्रिका के बाद में अर्धमागधी में रूपान्तरित किया गया। अपने इस कथन माध्यम से जैनविद्या के विद्वानों का एक वर्ग आग्रह ह के पक्ष में वे श्वेताम्बर दिगंबर किन्ही भी आगमों का प्रमाण न प्रतिपादन कर रहा है कि जैन आगमों की मल भाषा शौरसेनी देकर प्रो. टाँटिया के व्याख्यान से कुछ अंश उद्धत करते हैं। प्राकत थी, जिसे कालान्तर में परिवर्तित करके अर्धमागधा डा. सुदीप जैन ने प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च ९६ के सम्पादकीय बना दिया गया। इस वर्ग का यह भी दावा है कि शौरसेनी में उनके कथन को निम्न रूप में प्रस्तुत किया है-- प्राकृत ही प्राचीनतम प्राकृत है और अन्य सभी प्राकृतें यथा - "हाल ही में लालबहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ में सम्पन्न मागधी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि इसी से विकसित हुई हैं, अतः द्वितीय आचार्य कुन्दकुन्दस्मृति व्याख्यानमाला में विश्वविश्रुत वे सभी शौरसेनी प्राकृत से परवर्ती भी हैं। इसी क्रम में दिगंबर - भाषाशास्त्री एवं दार्शनिक विचारक प्रो. नथमल जी टाँटिया ने परंपरा में आगमों के रूप में मान्य आचार्य कन्दकन्द के ग्रन्थों स्पष्ट रूप से घोषित किया कि श्रमण साहित्य का प्राचीनरूप, में निहित अर्धमागधी और महाराष्ट्री शब्द रूपों को परिवर्तित चाहे वे बौद्धों के त्रिपिटक आदि हों, श्वेताम्बरों के आचारांगसूत्र, दशवैकालिकसूत्र आदि हों अथवा दिगंबरों के षटखण्डागमसूत्र, कर उन्हें शौरसेनी में रूपान्तरित करने का एक सुनियोजित समयसार आदि हों, सभी शौरसेनी प्राकृत में ही निबद्ध थे। प्रयत्न भी किया जा रहा है। इस समस्त प्रचार-प्रसार के पीछे उन्होंने आगे सप्रमाण स्पष्ट किया कि बौद्धों ने बाद में श्रीलंका मूलभूत उद्देश्य यह है कि श्वेताम्बर-मान्य आगमों को दिगंबर में एक बृहत्संगीति में योजनापूर्वक शौरसेनी में निबद्ध बौद्धसाहित्य परंपरा में मान्य आगम तुल्य ग्रंथों से अर्वाचीन और अपने . का मागधीकरण किया और प्राचीन शौरसेनी निबद्ध बौद्ध-साहित्य शौरसेनी में निबद्ध आगम तुल्य ग्रंथों को प्राचीन सिद्ध किया के ग्रंथों को अग्निसात् कर दिया। इसी प्रकार श्वेताम्बर जैन जाए। इस पारस्परिक विवाद का एक परिणाम यह भी हो रहा साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृत में ही था, जिसका है कि श्वेताम्बर-दिगंबर परंपरा के बीच कटुता की खाई गहरी रूप क्रमशः अर्धमागधी में बदल गया। यदि हम वर्तमान होती जा रही है और इस सब में एक निष्पक्ष भाषाशास्त्रीय अर्धमागधी आगम साहित्य को ही मूल श्वेताम्बर आगम साहित्य अध्ययन को पीछे छोड़ दिया जा रहा है। प्रस्तुत निबंध में मैं मानने पर जोर देंगे, तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से पंद्रह इन सभी प्रश्नों पर श्वेताम्बर परंपरा में आगम रूप में मान्य ग्रंथों सौ वर्ष पहिले अस्तित्व ही नहीं होने से इस स्थिति में हमें अपने के आलोक में चर्चा करने का प्रयत्न करूंगा। आगम साहित्य को भी ५०० ई. के परवर्ती मानना पड़ेगा।" क्या आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में उन्होंने स्पष्ट किया कि आज भी आचारांगसूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है, निबद्ध था ? जबकि नए प्रकाशित संस्करणों में उन शब्दों का अर्धमागधीकरण यहाँ सर्वप्रथम मैं इस प्रश्न की चर्चा करना चाहूंगा कि हो गया है। उन्होंने कहा कि पक्षव्यामोह के कारण.ऐसे परिवर्तनों क्या जैन आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था से हम अपने साहित्य का प्राचीन मूल रूप खो रहे हैं। उन्होंने और उसे बाद में परिवर्तित करके अर्धमागधी रूप दिया गया? स्पष्ट शब्दों में कहा कि दिगंबर जैन साहित्य में ही शौरसेनी भाषा कछ जैन विद्या के विद्वानों की यह मान्यता है कि जैन आगम के प्राचीनरूप सरक्षित रूप में उपलब्ध हैं। साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हआ था और उसे निस्संदेह प्रो. टाँटिया जैन और बौद्धविद्याओं के वरिष्ठतम హరహరహరహరుశారుగాంచారయగారురరరర రరరరరరwronుగారుగారంలో Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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