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________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य विद्वानों में एक हैं और उनके कथन का कोई अर्थ और आधार अवश्य हो रही है। डा. सुदीपजी प्राकृतविद्या जुलाई-सितंबर ९६ भी होगा। किन्तु ये कथन उनके अपने हैं या उन्हें अपने पक्ष की में डा. टाँटिया जी के उक्त व्याख्यानों के विचार-बिन्दुओं को पुष्टि हेतु तोड़-मोड़कर प्रस्तुत किया गया है, यह एक विवादास्पद अविकल रूप से प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि - 'हरिभद्र का प्रश्न है? क्योंकि एक ओर तुलसीप्रज्ञा के सम्पादक का कहना है सारा योगशतक धवला से है। कि टाँटिया जी ने इसका खण्डन किया है। वे तुलसीप्रज्ञा इसका तात्पर्य है कि हरिभद्र ने योगशतक को धवला के (अप्रैल-जून ९३.खंड २२,अंक ४) में लिखते हैं कि "डा. आधार पर बनाया है। क्या टाँटिया जी जैसे विद्वान् को नथमल टांटिया ने दिल्ली की एक पत्रिका में छपे और उनके इतना भी इतिहास-बोध नहीं है कि योगशतक के कर्ता हरिभद्र नाम से प्रचारित इस कथन का खंडन किया है कि महावीरवाणी सूरि और धवला के कर्ता में कौन पहले हुआ है? यह तो ऐतिहासिक शौरसेनी प्राकत में निबद्ध हुई। उन्होंने स्पष्ट मत प्रकट किया कि सत्य है कि हरिभद्रसूरि का योगशतक (आठवीं शती) धवला आचारांग, उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग और दशवैकालिक में (दसवीं शती) से पूर्ववर्ती है। मुझे विश्वास भी नहीं होता है कि अर्धमागधी भाषा का उत्कृष्ट रूप है।" टाँटिया जैसा विद्वान् इस ऐतिहासिक सत्य को अनदेखा कर दे। दूसरी ओर प्राकृतविद्या के सम्पादक डा. सुदीपजी का कहीं न कहीं उनके नाम पर कोई भ्रम खड़ा किया जा रहा है। डा. कथन है कि उनके व्याख्यान की टेप हमारे पास उपलब्ध है टांटिया जी को अपनी चुप्पी तोड़कर भ्रम का निराकरण करना और हमने उसे अविकल रूप से यथावत दिया है। मात्र इतना चाहिए था। वस्तुतः यदि कोई भी चर्चा प्रमाणों के आधार पर ही नहीं डा. सुदीपजी का तो यह भी कथन है कि तुलसीप्रज्ञा के नहीं होती है तो उसे मान्य नहीं किया जा सकता है, फिर चाहे उसे खण्डन के बाद भी वे टाँटिया जी से मिले हैं और टाँटियाजी ने कितने ही बड़े विद्वान् ने क्यों नहीं कहा हो। यदि व्यक्ति का ही उनसे कहा है कि वे अपने कथन पर आज भी दृढ़ हैं।टाँटियाजी महत्त्व मान्य है तो अभी संयोग से टॉटिया जी से भी वरिष्ठ के इस कथन को उन्होंने प्राकृतविद्या जुलाई-सितंबर ९६ के अंतरराष्ट्रीय ख्याति के जैन बौद्ध विद्याओं के महामनीषी और अंक में निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया -- स्वयं टाँटिया जी के गुरु पद्म विभूषण पं. दलसुख भाई हमारे "मैं संस्कृत विद्यापीठ की व्याख्यानमाला में प्रस्तत तथ्यों बीच हैं, फिर तो उनके कथन को अधिक प्रमाणिक मानकर पर पर्णतया दृढ हँ तथा यह मेरी तथ्याधारित स्पष्ट अवधारणा है . प्राकृतविद्या के सम्पादक को स्वीकार करना होगा। खैर ये सब जिससे विचलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है।" (पृ. ९) प्रास्तविक बातें थीं, जिनसे यह समझा जा सके कि समस्या क्या है? कैसे उत्पन्न हुई और प्रस्तुत संगोष्ठी की क्या आवश्यकता है? यह समस्त विवाद दो पत्रिकाओं के माध्यम से दोनों हमें तो व्यक्तियों के कथनों या वक्तव्यों पर न जाकर तथ्यों के सम्पादकों के मध्य है, किन्तु इस विवाद में सत्यता क्या है और प्रकाश में इसकी समीक्षा करनी है कि आगामों की मूलभाषा डा. टाँटिया का मूल मन्तव्य क्या है, इसका निर्णय तो तभी क्या थी और अर्धमागधी और शौरसेनी में कौन प्राचीन है? संभव है, जब डा. टाँटिया स्वयं इस संबंध में लिखित वक्तव्य देते, किन्तु वे इस संबंध में मौन रहे हैं। मैंने स्वयं उन्हें पत्र लिखा आगमों की मूलभाषा अर्धमागधी था, किन्तु उनका कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। मैं डा. टाँटिया की यह एक सुनिश्चित सत्य है कि महावीर का जन्मस्थान उलझन समझता हूँ एक ओर कुन्दकुन्द-भारती ने उन्हें कुन्दकुन्द- और कार्यक्षेत्र दोनों ही मख्य रूप से मगध और उसके समीपवर्ती व्याख्यान-माला में आमन्त्रित कर पुरस्कृत किया है, तो दूसरी प्रदेश में ही था, अत: यह स्वाभाविक है कि उन्होंने जिस भाषा ओर वे जैन विश्वभारती की सेवा में हैं, जब जिस मंच से बोले को बोला होगा वह समीपवर्ती क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी होंगे भावावेश में उनके अनुकूल वक्तव्य दे दिए होंगे और अब अर्थात् अर्धमागधी रही होगी। व्यक्ति की भाषा कभी भी अपनी स्पष्ट खण्डन भी कैसे करें? फिर भी मेरी अन्तरात्मा यह स्वीकार मातभाषा से अप्रभावित नहीं होती है। पनः श्वेताम्बर परम्परा में नहीं करती है कि डा. टाटिया जैसा गंभीर विद्वान् बिना प्रमाण मान्य जो भी आगम साहित्य आज उपलब्ध है. उसमें अनेक ऐसे के ऐसे वक्तव्य दे दे। कहीं न कहीं शब्दों की कोई जोड़-तोड़ संदर्भ है. जिनमें स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है कि महावीर ने ansaniduirdandiromabrdindidrionirdostonirominionia-[१०३ideredniaiduirdwordGrandirisordibandhronibidrivarta Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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