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- चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन दोनों अप्राप्यकारी होने के कारण सभी इंद्रियों का पदार्थों के सुप्त और जाग्रत् अवस्था में कोई अंतर नहीं रहेगा। यदि वृत्ति साथ सन्निकर्ष भी संभव नहीं। चक्षु स्पृष्ट का ग्रहण न करने और को इन्द्रिय से भिन्न मानें तो इन्द्रिय वृत्ति की ही उपपत्ति नहीं हो योग्य दूर स्थित अस्पृष्ट का ग्रहण करने से अप्राप्यकारी है। यदि पाती तो फिर उसे प्रमाण कैसे माना जा सकता है। चक्ष प्राप्यकारी हो तो उसे स्वयं में लगे अंजन को भी देख लेना बौदों के निर्विकल्पक ज्ञान को भी प्रमाण नहीं माना जा चाहिए। अत: सन्निकर्ष और इंद्रियादि प्रमाण नहीं हो सकते।
सकता, क्योंकि निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण मानने पर विकल्प उसी प्रकार कारक-साकल्य को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता।
के आधार पर जाने वाले लोक - व्यवहार आदि संभव नहीं कारक - साकल्य को प्रमाण मानने पर प्रश्न उठता है कि कारक
हो सकेंगे। यदि बौद्ध यह कहें कि निर्विकल्पक ज्ञान में साकल्य मुख्य रूप से प्रमाण है या उपचार से। वह मुख्य रूप से
सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न करने की शक्ति है, अत: वह प्रवर्तक है प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि कारक-साकल्य अज्ञान रूप है और प्रवर्तक होने से प्रमाण है. तो प्रश्न उठता है कि जो स्वयं
और जो अज्ञान रूप है, वह स्व और पर की प्रमिति में मुख्य निर्विकल्पक है वह विकल्प को कैसे उत्पन्न कर सकता है. रूपेण साधकतम नहीं हो सकता। प्रमिति में मुख्य साधकतम तो
क्योंकि निर्विकल्पक होने और विकल्प उत्पन्न करने की सामर्थ्य अज्ञान का विरोधी ज्ञान ही हो सकता है। क्योंकि ज्ञान और का परस्पर विरोध है। यदि कहा जाए कि विकल्प वासना की प्रमिति के बीच में किसी दूसरे का व्यवधान नहीं है। ज्ञान के अपेक्षा लेकर निर्विकल्पक प्रत्यक्ष विकल्पक को उत्पन्न कर होते ही पदार्थ की प्रमिति हो जाती है। किन्तु कारक - साकल्य
सकता है, तो विकल्पवासना सापेक्ष अर्थ ही विकल्प को उत्पन्न में यह बात नहीं है। कारक - साकल्य ज्ञान को उत्पन्न करता है,
कर देगा, दोनों के बीच में एक निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की तब पदार्थ की प्रमिति या जानकारी होती है। अतः कारक -
आवश्यकता ही क्या है और यदि निर्विकल्पक, विकल्प को साकल्य और प्रमिति के बीच में ज्ञान का व्यवधान होने से
उत्पन्न नहीं करता तो बौद्धों का यह कथन कि-- कारक - साकल्य को मुख्य रूप से प्रमाण नहीं माना जा सकता।
"यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता'' सांख्यों की इन्द्रियवृत्ति को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि इन्द्रियवृत्ति अचेतन है और जो अचेतन है, वह पदार्थ के
अर्थात्, जिस विषय में निर्विकल्पक प्रत्यक्ष सविकल्पक ज्ञान में साधकतम नहीं हो सकता। इन्द्रियवृत्ति क्या है? इन्द्रियों
हो बुद्धि को उत्पन्न कर सकता है, उसी विषय में वह प्रमाण है, का पदार्थ के पास जाना, पदार्थ की ओर अभिमुख होना अथवा
उनकी ही मान्यता के विरोध में आता है। फिर भी यदि सविकल्पक पदार्थों के आकार का हो जाना। प्रथम पक्ष ठीक नहीं है,
बुद्धि को उत्पन्न करने पर ही निर्विकल्पक का प्रामाण्य अभीष्ट है क्योंकि इन्द्रियों पदार्थ के पास नहीं जातीं अन्यथा दूर से ही
तो सविकल्पक को ही बौद्ध प्रमाण क्यों नहीं मान लेते, क्योंकि
वह संवाहक है, अर्थ की प्राप्ति में साधकतम है और अनिश्चित किसी पदार्थ के ज्ञान की उपपत्ति नहीं हो जाएगी। दूसरा पक्ष भी
अर्थ का निश्चायक है। अत: निर्विकल्पक ज्ञान को भी सत्रिकर्ष ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियों का पदार्थ की ओर अभिमुख होना ज्ञान की उत्पत्ति में कारण होने से उपचार से प्रमाण हो सकता है की तरह प्रमाण नहीं माना जा सकता। वास्तव में तो प्रमाण ज्ञान ही है। तीसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, उसी प्रकार मीमांसकों के ज्ञातृव्यापार को भी प्रमाण नहीं क्योंकि इन्द्रियों का पदार्थ के आकार का होना प्रतीतिविरुद्ध है। माना जा सकता। क्योंकि ज्ञातृव्यापार की सत्ता प्रत्यक्ष अनुमानादि जैसे दर्पण पदार्थ के आकार को अपने में धारण करता है. वैसे किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकती। फिर भी यदि ज्ञातव्यापार श्रोत्र आदि इन्द्रियाँपदार्थ के आकार को धारण करते नहीं देखी का अस्तित्व मानें तो प्रश्न उठता है कि वह कारकों से जन्य है या जातीं। फिर भी यदि इन्द्रियवृत्ति होती है ऐसा मान भी लिया जाए अजन्य। अजन्य तो हो नहीं सकता, क्योंकि वह एक व्यापार है। तो प्रश्न उठता है कि वृत्ति इन्द्रिय से भिन्न है या अभिन्न। यदि व्यापार तो कारकों से ही जन्य हुआ करता है। यदि जन्य है तो अभिन्न है तो उसे इन्द्रिय ही कहा जाना चाहिए, क्योंकि तब वह भावरूप है या अभावरूप। अभावरूप हो नहीं सकता, इन्द्रिय और उनकी वृत्ति एक ही हुई। परंतु निद्रावस्था में यदि क्योंकि यदि अभावरूप ज्ञातृव्यापार से भी पदार्थों का बोध हो इन्द्रिय और उसके व्यापार या वृत्ति की अभिन्नता मानी जाए तो जाता है तो उसके लिए कारकों की खोज करना ही व्यर्थ है।
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