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________________ -- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य भी और प्रवेश करते समय भी। आपको भाव-मंगल भी करना शक्ति प्रकट होगी। इसलिए सर्वप्रथम परमात्मा के शासन के चाहिए। सूर्यस्वर चंद्रस्वर चलता हो या दिन में दायें और रात में परम भक्त बनें, उनकी वाणी सुनें, उनकी आराधना करें, यही बायें पैर को प्रथम रखकर कम से कम ३-३ बार नवकार मंत्र धर्मक्रिया है, यही सम्यक् क्रिया या सम्यक् चारित्र है। भक्त का स्मरण करना चाहिए। तीन प्रकार के होते हैं सदैया, कदैया, भदैया। सदैया भक्त बनें, मंदिर में देवदर्शन तथा देवपूजा के बाद बाहर आकर ' तभी शासन के प्रति समर्पण का भाव जाग्रत होगा। समर्पण नवकार मंत्र गिन लेना चाहिए। यहाँ पर ग्रन्थकार ने भाव-मंगल - कर, करें, समर्पण करने से ही सदैया बनेंगे। किया है। परमात्मा को प्रणाम किया है। परमात्मा को नमस्कार। सुनकर तथा समझकर उसके अनुकूल प्रवृत्ति करनी चाहिए, नमस्कार करने से झुकना पड़ता है अर्थात् विनय करनी पड़ती है गुणों को जीवन में उतारना ही सम्यक क्रिया है, सम्यक् चारित्र इसलिए नमस्कार से अहंकार दूर होता है। व्यक्ति के जीवन में है। 'ज्ञानस्य फलं विरतिः' के अनुसार ज्ञान का फल त्याग है। ईगो (अहंकार) ही खतरनाक है। अहं का नाश ही विकास का बिना चारित्र के, बिना क्रिया के शुष्क ज्ञान व्यर्थ है। कहा गया हैमूल है। अहं-अहंकार विघ्न है। सर्वप्रथम सर्वगुणों का आधार पिंजरा खुला, पर पाँखें नहीं खुली तो क्या? विनय गुण है। विनय को क्रियान्वित करने से अहंकार स्वयं नष्ट दीपक जला, पर आँखें बंद रहीं तो क्या? हो जाता है। अहंकार-नाश का स्वाधीन उपाय है परमात्मा को पैर तो बहुत उठाए, पर गति नहीं तो क्या? नमस्कार। इसमें कोई पराधीनता नहीं, परतंत्रता नहीं। परमात्मा करने की बातें तो बहुत की, पर कर्मठता नहीं तो क्या? को नमस्कार करने से क्या परमात्मा से परिचय होता है? आत्मा दो प्रकार की होती है, परम और अपरम। परम किसे कहते हैं? शास्त्रकार कहते हैं-. जिसके कर्म दूर हो गए हों, जो लोक और अलोक को देखते हों, . जाणंतोऽवियतरिउं, काइजयोगं न जुंजइ नईए। जिनको सर्वदृश्य हो, जो निर्लेप, निष्काम, निरहंकार, निस्पृह, सो बुज्झई सोएणं, एवं नाणी चरणहीणो।। निरंजन हों, अष्ट प्रातिहार्य से सुशोभित हों, वाणी के ३५ गुण हों, जैसे कोई तैरना जानते हुए भी नदी में हाथ-पैर न हिलाए ३४ अतिशय हों। जिनकी वाणी को सब प्राणी समझ सकें. तो वह नदी में डूब जाता है। वैसे ही धर्म-सिद्धान्तों को जानते सबके संशय दूर हो जाएं। जहाँ पदार्पण हो वहाँ सख-शान्ति हुए भी यदि कोई उनके अनुसार आचरण न करे तो वह दुःखों से फैल जाए, उसको परम आत्मा कहते हैं। परम यानी उत्कष्ट है मुक्त नहीं हो सकता। कहा गया हैआत्मा जिसकी। सुबहुपि सुयमहीयं, किं का हितो चरणविप्पहूणस्स। परमात्मा शब्द में चमत्कार है। प का आकार ५ जैसा, र अंधस्स जह पलिता, दीवसयसहस्स कोडी वि।। का आकार २ जैसा, मा का आकार ४ जैसा का आकार ८ जैसे अन्धे के समक्ष सैकड़ों, हजारों, करोड़ों दीपक भी जैसा और मा का ४ जैसा, कुल चौबीस की संख्या होती है। व्यर्थ हैं, वैसे ही चारित्र का पालन न करने वाले के लिए ज्ञान तीर्थंकरों की संख्या भी चौबीस है। अतः परमात्मा को नमस्कार का भण्डार भी व्यर्थ है। 'आचारहीनं न पुनन्ति वेदा।' आचारहीन करने से २४ तीर्थंकरों को नमस्कार हो जाता है। अपनी हथेली को वेद भी पवित्र नहीं बना सकते। महान योगी भर्तृहरि ने कहा हैमें भी २४ की संख्या अंकित है, सिद्धशिला भी है। किन्तु अभी आहारनिद्राभयमैथुनं च, सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्। हम अपरम है। अपरम से परम बनने की, आत्मा से परमात्मा तत्रापि धर्मो अधिको विशेषो, धर्मेण हीना पशुभिः समानाः।। बनने की उपासना ही धर्मक्रिया है, धर्माराधना है। आहार, निद्रा, भय और मैथुन तो मनुष्यों और पशुओं में अपरम आत्मा परम आत्मा का ध्यान करे. आलम्बन समान ही हैं। मनुष्य में एक धर्म की ही विशेषता है। धर्म के ग्रहण करे तो स्वयं भी परम बन जाती है। आपको अपरम ही बिना मनुष्य पशु के समान ही है। धर्म की चर्चा कितनी ही करे, रहना है या परम बनना है, बतलाइए? बनना तो परम है पर पर क्रिया कुछ भी न करे, तो उसका कल्याण हो सकता है क्या? शक्ति नहीं है। शक्ति कैसे प्राप्त हो? परमात्मा की भक्ति से ही कदापि नहीं। इसीलिए कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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