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किन्तु वर्तमान में उन सभी पक्षों पर मौलिक निबंध प्राप्त कर लेना भी एक कठिन कार्य था। मेरे सहयोगी डॉ. श्री प्रकाश पांडे ने अथक प्रयत्न कर इस हेतु विद्वानों से लेख आमंत्रित किए, किन्तु दुर्भाग्य से अनेक स्मरण पत्रों के बावजूद हमें सीमित संख्या में ही मौलिक लेख उपलब्ध हो सके अतः जैन संस्कृति के यथा शक्य सभी पक्ष ग्रंथ समाहिक हो सके इस दृष्टि में रखकर कुछ पूर्व प्रकाशित विकीर्ण सामग्री को भी इसमें समाहित किया गया है।
इसमें जो सामग्री पुनः प्रकाशित की जा रही है उसके लिए विशेष रूप से पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी के विशेष आभारी है। क्योंकि मुनिप्रवर श्री जयप्रभविजयजी के विशेष आग्रह पर इसमें मेरे अनेक लेख पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्रकाशन जैन विद्या के आयाम खंड 6 से पुनः प्रकाशित किए गए हैं। इसके अतिरिक्त कुछ विद्वानों के श्रमण आदि पत्रिकाओं में पूर्व प्रकाशित लेख भी प्राप्त हुए हैं और कुछ को स्वयं हमने भी चुना है। अतः इस पूर्व प्रकाशित सामग्री के पुनः प्रकाशन के लिए हम उन सभी प्रकाशकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
लेखादि उपलब्ध कराने में हमें अपने सम्पादक मंडल के जिन सदस्यों का सहयोग प्राप्त हुआ है उनके भी विशेष रूप से आभारी हैं। इस कार्य में हमें सर्वाधिक सहयोग डॉ. श्री प्रकाश पांडे और आदरणीय डॉ. रमणलाल ची. शाह का मिला है। अतः उन दोनों के प्रति भी आभार व्यक्त करते हैं। इसके गुजराती खंड के लिए तो डॉ. रमणलाल ची. शाह का सहयोग ही विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
ग्रंथ के प्रकाशन में सबसे नीरस किन्तु सबसे महत्वपूर्ण कार्य प्रुफ संशोधन का होता है। इस दायित्व का अपनी सम्पूर्ण शक्ति और योग्यता के साथ पूरी निष्ठा से निर्वाह किया है डॉ. विनोद कुमार शर्मा (प्राध्यापक संस्कृत विभाग महाविद्यालय, शाजापुर) ने। सहयोग के बिना इस ग्रंथ इस रूप में प्रकाशन संभव नहीं था। प्रफुसंशोधन एक ऐसा कार्य है, जिसमें पर्याप्त सावधानी सतर्कता के बावजूद भी कुछ स्खलन स्वाभाविक है। क्योंकि जैन विद्या के अनेक पारिभाषिक शब्द ऐसे हैं, जिनसे भारतीय विद्या के विशिष्ट विद्वान भी अल्प परिचित होते हैं। अतः इसमें रह गई त्रुटियों के लिए हम विशेष रूप से क्षमा प्रार्थी हैं।
ग्रंथ कम्पोजिंग और मुद्रण का दायित्व श्री राजेन्द्र ग्राफिक्स के श्री सन्तोष मामा ने पूर्ण किया अतः हम उन्हें भी धन्यवाद देते हैं। इस सम्पूर्ण ज्ञान यज्ञ की अथ से लेकर इति तक सम्पूर्ण प्रक्रिया में जो सदैव सक्रिय रहे उन्हें हम किन शब्दों में धन्यवाद दे उन्होंने तो इस ज्ञान-यज्ञ के माध्यम से अपने गुरु के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह किया है।
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डॉ. सागरमल जैन पूर्व निदेशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी
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