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________________ स्वास्थ्य और अध्यात्म पहला सुख निरोगी काया' जानते, मानते और आवश्यक होते हुए भी आज मानव प्रायः कितना स्वस्थ एवं सुखी है ? यह जनसाधारण से छिपा हुआ नहीं है। प्रत्येक मनुष्य जीवन पर्यन्त स्वस्थ रहना चाहता है । परन्तु चाहने मात्र से तो स्वास्थ्य प्राप्त नहीं हो जाता । मृत्यु निश्चित है। जन्म के साथ आयुष्य के रूप में श्वासों का जो खजाना लेकर हम जन्म लेते हैं, वह धीरेधीरे क्षीण होता जाता है। जीवन के अंतिम क्षणों तक उस संचित, संग्रहीत प्राण ऊर्जा के प्रवाह को संतुलित, नियंत्रित एवं सही संचालित करके तथा उसका सही उपयोग करके ही हम शांत सुखी एवं स्वस्थ रहकर दीर्घ जीवन जी सकते हैं। रोग क्या है ? उपचार से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि रोग क्या है? रोग कहाँ, कब और क्यों होता है? उसके प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष कारण क्या हैं तथा उसके सहायक एवं विरोधी तत्त्व क्या है? क्या शारीरिक रोगों का मन और आत्मा से संबंध है? शरीर की प्रतीकारात्मक शक्ति कैसे कम होती है? उसको बढ़ाने अथवा कम करने वाले तत्त्व कौन से हैं? वास्तव में प्राकृतिक नियमों के जाने-अनजाने वर्तमान अथवा भूतकाल में उल्लंघन अर्थात् असंयमित, अनियमित, अनियंत्रित, अविवेकपूर्ण स्वछन्द आचरण के द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक क्षमताओं का दुरुपयोग अथवा असंतुलन रोग है। जिसके परिणामस्वरूप शरीर, मन और आत्मा ताल से ताल मिलाकर आचरण नहीं करते। शरीर की सभी क्रियाएँ, अंग, उपांग एवं अवयव अपना-अपना कार्य स्वतंत्रतापूर्वक नहीं कर पाते। फलतः शरीर के अवांछित विजातीय अनुपयोगी विकारों का बराबर विसर्जन नहीं होता। उनमें अवरोध उत्पन्न होने से जो पीड़ा, दर्द, कमजोरी, चैतन्य, शून्यता, तनाव, बैचेनी आदि की जो स्थिति शरीर में उत्पन्न होती है, वही रोग कहलाती है। रोग का प्रारंभ आत्मविकारों से Jain Education International - मनुष्य का शरीर अनन्त गुणधर्मी है। अतः हमें अनेकान्त Spide दृष्टिकोण से उसको समझना होगा तथा रोग उत्पन्न करने वाले कारणों से बचना होगा। शक्ति की सबसे गहरी एवं प्रथम परत आत्मा पर होती है। पूवर्जित कर्मों के अनुसार ही इस जन्म में हमें हमारी प्रज्ञा, श्रद्धा, आयुष्य, सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय, अनुकूलप्रतिकूल, संयोग-वियोग आदि मिलते हैं। हमारी आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन एवं अनन्त सुख से परिपूर्ण है, परंतु कर्मों से आच्छादित होने के कारण उसका सही रूप प्रकट नहीं हो पाता । ज्ञानावरणीय कर्मों के अनुसार हमारी प्रज्ञा होती है । दर्शनावरणीय कर्मों के प्रभाव से हमें सोचने, समझने, विश्वास करने एवं चिन्तन की सही अथवा गलत दृष्टि मिलती है। वेदनीय कर्मों के अनुसार हमें सुख-दुःख की प्राप्ति होती है । आयुष्य कर्मों के आधार पर हमारी आयुष्य का बन्ध होता है। मोहनीय कर्म राग-द्वेष एवं आसक्ति अथवा अनासक्ति के भाव पैदा करता है। गोत्र कर्म के अनुसार हमें कुल, परिवार, जाति, प्रथा आसपास का वातावरण मिलता है। नामकर्म के अनुरूप हमें पद और प्रतिष्ठा मिलती है। अंतराय कर्मों का उदय विकास एवं सुखद उपलब्धियों में अवरोध उत्पन्न करता है। जिसके परिणामस्वरूप सभी अनुकूलताएँ होते हुए भी इच्छित लक्ष्यप्राप्ति में कुछ न कुछ बाधा उपस्थित हो जाती है। चंचलमल चोरड़िया जालोरी गेट के बाहर, जोधपुर... कर्मों की इन विसंगतियों का प्रभाव हम अपने आसपास के वातावरण में स्पष्ट अनुभव करते हैं। आत्मा पर आए इन कर्मों के आवरणों को मनुष्य जीवन में सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा दूर किया जा सकता है। सारे कर्मों का क्षय होने से मनुष्य नर से नारायण, आत्मा से परमात्मा, भक्त से भगवान के रूप में सर्वज्ञ, सर्वदर्शी व अनन्तसुखी बन जाता है। अपने स्वभाव में स्थित हो जाता है। यही सम्पूर्ण स्वस्थता है । यही मानव-जीवन का परम लक्ष्य । जो आत्मोत्थान में जितना जितना विकसित होता है, उतना उतना ही आत्मबली बनता जाता है। रोगों की जड़ें ही समाप्त होने लगती है । उपचार की आवश्यकताएँ कम होती जाती हैं। आत्मा के विकार आत्मज्ञानी के मार्ग निर्देशन में व्यक्ति के सम्यक् पुरुषार्थ एवं सम्यक् आचरण से ही दूर किए Ensamsvol 3 & pe For Private Personal Use Only Simi www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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