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________________ -यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारपज्जुसवेयव्वं नो अपवेसुर२ अर्थात् आषाढ़ पूर्णिमा को पर्युषण करना अवधारणा से दक्षिण भारत में विकसित दिगम्बर-परम्परा अपरिचित यह उत्सर्ग-मार्ग है और अन्य समय में पर्युषण करना अपवाद-मार्ग होती गई। मूलाचार में मुनिलिङ्ग प्रसङ्ग में दस कल्प सम्बन्धी जिस है। अपवाद मार्ग में भी एक मास और २० दिन अर्थात् भाद्र शुक्ल गाथा का उल्लेख हुआ है, उसे देखने से ज्ञात होता है कि अचेलता पञ्चमी का अतिक्रमण नहीं करना चाहिये। यदि भाद्र शुक्ल पञ्चमी की पुष्टि के लिए ही उस गाथा को बृहद्-कल्प-भाष्य से या अन्यत्र तक भी निवास के योग्य स्थान उपलब्ध न हो तो वृक्ष के नीचे पर्युषण कहीं से ग्रहण किया गया है। इसकी परवर्ती गाथाओं में मयूरपिच्छि कर लेना चाहिये। अपवाद-मार्ग में भी पञ्चमी, दशमी, अमावस्या एवं आदि का विवेचन है। यदि यह गाथा मूलाचार का अङ्ग होती तो उसमें पूर्णिमा इन पर्व तिथियों में ही पर्युषण करना चाहिए, अन्य तिथियों इसके बाद क्रमश: दस कल्पों का विवेचन होना चाहिए था। जबकि में नहीं। इस बात को लेकर निशीथभाष्य एवं चूर्णि में यह प्रश्न उठाया इसकी पूर्ववर्ती गाथा अचेलता का वर्णन करती है और परवर्ती गाथाएँ गया है कि भाद्र शुक्ल चतुर्थी को अपर्व तिथि में पर्युषण क्यों किया मयूरपिच्छिका का। आश्चर्य यह भी है कि मूलाचार के टीकाकार आचार्य जाता है? इस सन्दर्भ में उसमें कालक आचार्य की कथा दी गयी है। वसुनन्दी शय्यातर एवं पज्जोसवण नामक कल्पों के मूलभूत अर्थों से कथा इस प्रकार है- कालक आचार्य विचरण करते हुए वर्षावास भी परिचित नहीं हैं। उन्होंने पज्जोसवण कल्प का अर्थ तीर्थङ्करों के . हेतु उज्जयिनी पहुंचे। किन्तु किन्हीं कारणों से राजा रुष्ट हो गया, पञ्च-कल्याणक स्थानों की पर्युपासना किया है (पज्जो-पर्या पर्युपासनं अत: कालक आचार्य ने वहाँ से विहार करके प्रतिष्ठानपुर की ओर निषधकाया: पञ्च-कल्याण स्थानानां च सेवनं पर्येत्युच्यते श्रमणस्य . प्रस्थान किया और वहाँ श्रमण-संघ को आदेश भिजवाया कि जब श्रामणस्य वा कल्पो विकल्प: श्रमण कल्प:- मूलाचार, भाग २, तक हम नहीं पहुँचते हैं तब तक आप लोग पर्युषण न करें। वहाँ । पृ.१०५) पज्जोसवणा में आये हुए 'सवणा' का पाठान्तर 'समणा' का सातवाहन राजा श्रावक था, उसने कालक आचार्य को सम्मान के कर 'श्रमण' अर्थ किया है जो कि यथार्थ नहीं है ऐसा लगता है कि साथ नगर में प्रवेश कराया। प्रतिष्ठानपुर पहुँचकर आचार्य ने घोषणा दिगम्बर आचार्य पज्जोसवणाकप्प के मूल अर्थ से परिचित नहीं थे। की कि भाद्र शुक्ल पञ्चमी को पर्युषण करेंगे। यह सुनकर राजा ने यापनीय शिवार्य की भगवती-आराधना में भी इन्हीं दस कल्पों का निवेदन किया कि उस दिन नगर में इन्द्रमहोत्सव होगा। अत: आप विवेचन करने वाली गाथा है। किन्तु यहाँ पर यह गाथा ग्रन्थ का मूल भाद्र शुक्ल षष्ठि को पर्युषण कर.लें। किन्तु आचार्य ने कहा कि शास्त्र अङ्ग है, क्योंकि आगे और पीछे की गाथाओं में भी कल्प का विवेचन के अनुसार पञ्चमी का अतिक्रमण करना कल्प्य नहीं है। इस पर राजा है। इसके टीकाकार अपराजित. सूरि ने इस गाथा की बहुत ही विस्तृत ने कहा कि फिर आप भाद्र शुक्ल चतुर्थी को ही पर्युषण करें। आचार्य टीका लिखी है और प्रत्येक कल्प का वास्तविक अर्थ स्पष्ट किया ने इस बात की स्वीकृति दे दी और श्रमण-संघ ने भाद्र शुक्ल चतुर्थी है। यही नहीं, उन्होंने इस सम्बन्ध में आगमों (श्वेताम्बर आगमों) के को पर्युषण किया।१३ सन्दर्भ भी प्रस्तुत किये हैं। यह स्वाभाविक भी था, क्योकि यापनीय यहाँ ऐसा लगता है कि आचार्य लगभग भाद्र कृष्ण पक्ष के अन्तिम आचार्य आगमिक साहित्य को मान्य करते थे। अपराजित सूरि ने दिनों में ही प्रतिष्ठान पर पहुँचे थे और भाद्र कृष्ण अमावस्या को पर्युषण पज्जोसवणाकप्प का अर्थ वर्षावास के लिए एक स्थान पर स्थित रहना करना सम्भव नहीं था। यद्यपि वे अमावस्या के पूर्व अवश्य ही प्रतिष्ठानपुर ही किया जो श्वेताम्बर-परम्परा से मूल अर्थ के अधिक निकट है। पहँच चुके थे, क्योकि निशीथचूर्णि में यह भी लिखा है कि राजा उन्होंने चातुर्मास का उत्सर्गकाल एक सौ बीस दिन बतलाया है, साथ ने श्रावकों को आदेश दिया कि तुम लोग भाद्र कृष्ण अमावस्या को ही यह भी बताया है कि यदि साधु आषाढ़ शुक्ल दशमी को चातुर्मास पाक्षिक उपवास करना और भाद्र शुक्ल प्रतिपदा को विविध पकवानों स्थल पर पहुँच गया है तो वह कार्तिक पूर्णिमा के पश्चात् तीस दिन के साथ पारणे के लिए मुनिसंघ को आहार प्रदान करना। चूँकि और ठहर सकता है। अपराजित सूरि के अनुसार अपवाद काल सौ शास्त्र-आज्ञा के अनुसार सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के पूर्व तेला करना दिनों का होता है। यहाँ श्वेताम्बर-परम्परा से उनका भेद स्पष्ट होता होता था, अतः भाद्र शुक्ल द्वितीया से चतुर्थी तक श्रमण संघ ने तेला है, क्योकि श्वेताम्बर-परम्परा में अपवाद काल भाद्र शुक्ल पंचमी से किया। भाद्र शुक्ल पञ्चमी को पारणा किया। जनता ने आहार-दान कार्तिक पूर्णिमा तक सत्तर दिन का ही है। इस प्रकार वे यह मानते कर श्रमण संघ की उपासना की। इसी कारण महाराष्ट्र देश में भाद्र हैं कि उत्सर्ग रूप में तो आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को और अपवाद रूप शुक्ल पञ्चमी श्रमण-पूजा नाम से भी प्रचलित है। यह भी सम्भव में उसके बीस दिन पश्चात् तक भी पर्युषण अर्थात् वर्षावास की स्थापना है कि इसी आधार पर हिन्दू परम्परा में ऋषि पञ्चमी का विकास हुआ है। कर लेनी चाहिये। इस प्रकार दिगम्बर-परम्परा के आगमिक आधारों पर आषाढ़ पूर्णिमा ही पर्युषण को उत्सर्ग तिथि ठहरती है। आज भी पर्युषण/दशलक्षण और दिगम्बर-परम्परा दिगम्बर-परम्परा में वर्षायोग की स्थापना के साथ अष्टाह्निक पर्व मनाने जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया कि दिगम्बर-ग्रन्थ मूलाचार की जो प्रथा है वही पर्युषण के मूल हार्द के साथ उपयुक्त लगती है। के समयसाराधिकार की ११८वी गाथा में और यापनीय-संघ के ग्रन्थ जहाँ तक दशलक्षण पर्व के इतिहास का प्रश्न है वह अधिक भगवती-आराधना की ४२३वीं गाथा में दस कल्पों के प्रसङ्ग में पर्युषण पुराना नहीं है। मुझे अब तक किसी प्राचीन ग्रन्थ में इसका उल्लेख कल्प का उल्लेख हुआ है। किन्तु ऐसा लगता है कि पर्युषण की मूलभूत देखने को नहीं मिला है। यद्यपि १७वीं शताब्दी की एक कृति व्रतansantrationsansanasiasanansantanssional professionis m embransansaniambia Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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