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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य अरे! भव्य जीवो! तुम प्रमाद का त्याग कर मोक्षपुरी में जाने के प्रभु के तीन गढ़ : परमात्मा की कांति,प्रताप एवं यश लिए सार्थवाह के समान प्रभु के पास आकर इनकी सेवा करो। से तीनों लोक भर गये तो भी कांति, प्रताप और यश जगत में समा छत्र प्रातिहार्य : चंद्र कह रहा है कि जब साक्षात् प्रभु तीन ।
नशानी न पाये इसलिए ये तीनों माणिक्य, सुवर्ण एवं रजत के रूप में लोक को प्रकाशित कर रहे हैं, तो मेरा तो आकाश में रहकर प्रभु क तान गढ़ बन गए। प्रकाश करने का कोई अधिकार ही नहीं रहा। इसलिए तारामंडल इस प्रकार आंख बन्द कर अष्टप्रातिहार्य-युक्त प्रभु का सहित मैंने आकर मुक्ताफल की मोती के समूह से उल्लसित ध्यान करने पर एवं उनके संदेश को हृदय में धारण करने पर तीन छत्रों के बहाने से अपने शरीर को त्रिधा बनाया है। अर्थात् आत्मा परमात्मा के साथ अभेद रूप को प्राप्त करती है। भगवान का जगत् में इतना प्रभाव है कि चंद्रादि भी अधिकाररहित बन भगवान की सेवा में जुट गए हैं।
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