________________
आज के युग में मनोरंजन के हजारों साधन नजर आ रहे हैं। ये साधन मनोरंजन एवं समय व्यतीत तो कराते हैं लेकिन आत्मा में अनेक कुसंस्कार डाले बिना नहीं रहते। इसलिए धार्मिक आयोजन अति आवश्यक हैं। प्रत्येक गाँव में जहाँ भी सोसायटी आदि में अपने २०-२५ या इससे अधिक घरों की संख्या है वहाँ पर एक सामायिक मंडल तो होना ही चाहिए ।
प्रति ग्राम - नगर में सामायिक मण्डल आवश्यक
आज गुजरात एवं देशावरों में अधिकांश स्थानों पर सामायिक मंडल दिखाई देते हैं । मारवाड़ मालवा में यह पद्धति इतनी विकसित नहीं हुई है। लेकिन इन पुराने मंडलों में कितने ही आशय दीप प्रविष्ट होने से परिणाम सही नहीं मिल रहा है। एवं जहाँ पर मंडल ही नहीं हैं वे गाँव तो बिल्कुल परिणामशून्य हैं। दोनों ही स्थानों में सामायिक मंडल के सही स्वरूप एवं उद्देश्य कैसे होने चाहिए एवं सामायिक का क्या महत्त्व है यह समझें । 'सामायम्मि उकए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एएण कारणेणं बहुसो सामइयं कुज्जा ।।
हर व्यक्ति साधु नहीं बन सकता। लेकिन सामायिक तो कर ही सकता है। सामायिक में श्रावक भी साधु जैसा होता है । सामायिक में साधु पणे का आस्वाद लिया जा सकता है। वह इस प्रकार है - सामायिक के मुख्य सूत्र 'करेमि भंते' में दो प्रतिज्ञाएँ है । ( १ ) 'सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' यह प्रतिज्ञा सामायिक में पाप-व्यापार आदि से निवृत्ति रूप है। इस प्रतिज्ञा से ३२ दोषों का त्याग किया जाना है। (२) 'जाव नियमं पज्जुवासामि' इस प्रतिज्ञा से सामायिक में रत्नत्रयी (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) की आराधना करने का प्रण किया जाता है। इन दो प्रतिज्ञाओं को बराबर समझे बिना शुद्ध सामायिक नहीं हो सकती । प्रथम प्रतिज्ञा दोषत्याग रूप है - मन वचन तथा काया के दोष का त्याग इस प्रकार है। मनदोष शत्रु को देखकर गुस्सा, गाम गपाटे, मन में कंटाला, यश की वांछा, भय का विचार, व्यापार या रसोई संबंधी विचार, धर्म के फल में शंका एवं धर्म के फल की इच्छा इत्यादि कुविकल्प नहीं करना ।
Ambient
Jain Education International
-
कमले यो ३
साध्वी मणिप्रभा श्री...
वचनदोष - किसी को अपशब्द, पापकर्म का आदेश, गृहस्थ की आगता - स्वागता या क्षेमकुशलपृच्छा, गाली, विकथा (स्त्री, खान, पान, देश एवं राजा संबंधी बातें) एवं मजाक तथा बकबक इनमें से किसी भी असभ्य वाणी का प्रयोग नहीं करना । कायदोष- घड़ी-घड़ी जगह बदलना, यहाँ-वहाँ देखना, पापकारी काम, आलस मरोड़ना असभ्य रूप से बैठना, भीत का टेका लेना, शरीर का मैल उतारना, खुजली - खनन, पैर पर पैर चढ़ाकर बैठना, काम-चेष्टा एवं निद्रा ये सभी काया संबंधी कुव्यापार नहीं करें।
द्वितीय प्रतिज्ञा गुणप्राप्ति रूप है - वह इस प्रकार है -
सामायिक में ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की आराधना करनी चाहिए। ज्ञानाराधना - स्वाध्याय करना, ज्ञान की पुस्तक पढ़ना, गाथा करना, गाथा सुनना, दूसरों को पढ़ाना। दर्शनाराधना
माला गिनना, चौबीशी बाँचना, शुभ सम्यक्त्वादि का चिंतन करना । चारित्राराधना - कामोत्सर्ग करना, खमासमण देना, मुहपत्ति एवं चरवले का बराबर उपयोग करना, साधु-साध्वीजी की अनुमोदना करना, अपने पूर्वकृत् दुष्कृत्यों की गर्हा करना इत्यादि ।
अपने सामायिक मंडल में ऐसी सामायिक होनी खूब आवश्यक है। प्रभु वीर ने श्रेणिक महाराजा को नरक में गिरने से बचने के उपाय के रूप में पुणिया श्रावक की एक सामायिक खरीद लेने को कहा । श्रेणिक सामायिक लेने पुणिया श्रावक के यहाँ पहाँचे भी; लेकिन सामायिक बेचना पुणिया श्रावक नहीं जानता था। दोनों सामायिक की कीमत पूछने प्रभु वीर के समीप पधारे। श्रेणिक को तो किसी भी हालत में नरक में जाने से बचना था, वह पूरा मगध राज्य बेचकर भी अपनी दुर्गति का निवारण करना चाहता था। परंतु जब भगवान् ने एक सामायिक की महिमा १ लाख सुवर्ण की हाँडी के दान से भी कई गुना अधिक बताई। आश्चर्य ! कि सारे मगध का सम्राट् होते हुए भी श्रेणिक इतना धन सारे राज्य को बेचने पर भी नहीं दे सका।
For Private & Personal Use Only
„ÉG
www.jainelibrary.org