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________________ . थतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन मूल्य गाजर और मूली से अधिक नहीं रह गया है। केवल व्यक्तिगत ने तो इस दुष्प्रवृत्ति को रोकने के लिए अपने पंचशीलों में अपरिग्रह हितों के लिए ही धर्म और राजनीति के नाम पर वहाँ जो कुछ हो के स्थान पर मद्यपान-निषेध को स्थान दिया था। यह एक ऐसी बुराई रहा है, वह हम सभी जानते हैं। यदि हम यह मानते हैं कि मानव-जीवन है, जो मानव-समाज के गरीब और अमीर दोनों ही वर्गों में हावी से क्रूरता समाप्त हो और कोमल गुणों का विकास हो, तो हमें उन है। जैन-परम्परा में मद्यपान का निषेध न केवल इसलिए किया गया कारणों को भी दूर करना होगा, जिनसे जीवन में क्रूरता आती है। कि वह हिंसा से उत्पादित है, अपितु इसलिए कि इससे मानवीय मांसाहार और क्रूरता पर्यायवाची हैं। यदि दया, करुणा, वात्सल्य का विवेक कुण्ठित होता है और जब मानवीय विवेक ही कुण्ठित हो जाएगा विकास करना है, तो मांसाहार का त्याग अपेक्षित है। तो दूसरी सारी बुराइयाँ व्यक्ति के जीवन में स्वाभाविक रूप से प्रविष्ट दूसरे, मांसाहार की निरर्थकता को मानव-शरीर की संरचना के हो जावेंगी। आर्थिक और चारित्रिक सभी प्रकार के दुराचरणों के मूल आधार पर भी सिद्ध किया जा सकता है। मानव-शरीर की संरचना में नशीले पदार्थों का सेवन है। सामान्यतया यह कहा जा सकता है उसे निरामिष प्राणी ही सिद्ध करती है। मांसाहार मानव-स्वास्थ्य के कि मादक द्रव्यों के सेवन से मनुष्य अपनी मानसिक चिन्ताओं को लिए कितना हानिकारक है, यह बात अनेक वैज्ञानिक अनुसन्धानों भूल कर अपने तनावों को कम करता है, किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा से प्रमाणित हो चुका है। इस लघु निबन्ध में उस सबकी चर्चा कर ही है। तनाव के कारण जीवित रखकर केवल क्षण भर के लिए अपने पाना तो सम्भव नहीं है, किन्तु यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि मांसाहार विवेक को खो कर विस्मृति के क्षणों में जाना, तनावों के निराकरण शरीरिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और मनुष्य स्वभावतः एक । एवं परिमार्जन का सार्थक उपाय नहीं है। मद्यपान को सभी दुर्गुणों शाकाहारी प्राणी है। का द्वार कहा गया है। वस्तुत: उसकी समस्त बुराइयों पर विचार करने मांसाहार के समर्थन में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि के लिए एक स्वतन्त्र निबन्ध आवश्यक होगा। यहाँ केवल इतना कहना बढ़ती हुई मानव-जाति की आबादी को देखते हुए भविष्य में मांसाहार ही पर्याप्त है कि सारी बुराईयाँ विवेक के कुण्ठित होने पर पनपती के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प शेष नहीं रहेगा, जिससे मानव-जाति हैं और मद्यमान विवेक को कुण्ठित करता है। अत: मनुष्य के मानवीय की क्षुधा को शान्त किया जा सके। किन्तु उसके विपरीत कृषि के गुणों को जीवित रखने के लिए इसका त्याग आवश्यक है। क्षेत्र में भी ऐसे अनेक वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं और हो रहे हैं जो स्पष्ट मनुष्य और पशु के बीच यदि कोई विभाजक रेखा है। तो वह रूप से यह प्रतिपादित करते हैं कि मनुष्य को अभी शताब्दियों तक विवेक ही है। और जब विवेक ही समाप्त हो जायेगा तो मनुष्य और निरामिष भोजी बनाकर जिलाया जा सकता है। अनेक आर्थिक सर्वेक्षणों पशु में कोई अन्तर ही नहीं रह जाएगा। मादक द्रव्यों का सेवन मनुष्य में यह भी प्रमाणित हो चुका है कि शाकाहार मांसाहार की अपेक्षा को मानवीय स्तर से गिराकर उसे पाशविक स्तर पर पहुँचा देता है। अधिक सुलभ और सस्ता है। अतः मनुष्य की स्वाद-लोलुपता के यह भी एक सुविदित तथ्य है कि जब यह दुर्व्यसन गले लग जाता अतिरिक्त और कोई तर्क ऐसा नहीं है, जो मांसाहार का समर्थक हो है तो अपनी अति पर पहुँचाए बिना समाप्त नहीं होता। वह न केवल सके। शक्तिदायक आहार के रूप में मांसाहार के समर्थन का एक खोखला विवेक को ही समाप्त करता है अपितु आर्थिक और शारीरिक दृष्टि दावा है। यह सिद्ध हो चुका है कि मांसाहारियों की अपेक्षा शाकाहारी से व्यक्ति को जर्जर बना देता है। आज जैन-समाज के सम्पन्न परिवारों अधिक शक्ति-सम्पन्न होते हैं और उनमें अधिक काम करने की क्षमता में यह दुर्व्यसन भी प्रवेश कर चुका है। मैं ऐसे अनेक परिवारों को होती है। शेर आदि मांसाहारी प्राणी शाकाहारी प्राणियों पर जो विजय जानता हूँ जो धर्म के क्षेत्र में अग्रणी श्रावक माने जाते हैं किन्तु इस प्राप्त कर लेते हैं, उसका कारण उनकी शक्ति नहीं बल्कि उनके नख, दुर्व्यसन से मुक्त नहीं हैं। आज हमें इस प्रश्न पर गम्भीरता से विचार दाँत आदि क्रूर शारीरिक अङ्ग ही हैं। करना होगा कि समाज को इससे किस प्रकार बचाया जाए। जैन-समाज जैन-समाज के लिए आज यह विचारणीय प्रश्न है कि वह समाज ने जो चारित्रिक गरिमा, आर्थिक सम्पन्नता तथा समाज में प्रतिष्ठा अर्जित में बढ़ती जा रही सामिष-भोजन की ललक को कैसे रोकें? आज की थी उसका मूलभूत आधार इन दुर्व्यसनों से मुक्त रहना ही था। आवश्यकता इस बात की है कि हमें मांसाहार और शाकाहार के गुण-दोषों इन दुर्व्यसनों के प्रवेश के साथ हमारी चारित्रिक उच्चता और सामाजिक की समीक्षा करते हुए तुलनात्मक विवरण से युक्त ऐसा साहित्य प्रकाशित प्रतिष्ठा धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। और तब एक दिन ऐसा करना होगा, जो आज के युवक को तर्क-संगत रूप से यह अहसास भी आएगा जब हम अपनी आर्थिक सम्पन्नता से हाथ धो बैठेंगे। यदि करवा सके कि मांसाहार की अपेक्षा शाकाहार एक उपयुक्त भोजन है। हम सजग नहीं हुए तो भविष्य हमें क्षमा नहीं करेगा। दूसरे समाज में जो मांसाहार के प्रति ललक बढ़ती जा रही है, उसका ४. वेश्यागमन-श्रावक के सप्त दुर्व्यसन-त्याग के अन्तर्गत कारण समाज-नियन्त्रण का अभाव तथा मांसाहारी समाज में बढ़ता वेश्यागमन के त्याग का भी विधान किया गया है। यह सुनिश्चित सत्य हुआ घनिष्ठ परिचय है, जिस पर किसी सीमा तक अंकुश लगाना है कि वेश्यागमन न केवल सामाजिक दृष्टि से आवांछनीय है, अपितु आवश्यक है। आर्थिक एवं शारीरिक-स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अवांछनीय माना गया ३. मद्यपान-तीसरा दुर्व्यसन मद्यपान माना गया है और है। उसके अनौचित्य पर यहाँ कोई विशेष चर्चा करना आवश्यक प्रतीत गृहस्थोपासक को इसके त्याग का स्पष्ट निर्देश दिया गया है। बुद्ध नहीं होता। सामाजिक सदाचार और पारिवारिक सुख-शान्ति के लिए andbariridwarnirbrowbandwidtimidnidroincidnirbinird-[१९९-didatrordindabredibordondvodrowondirbronowindoornard Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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