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________________ २. नयचक्र, ३. आलापपद्धति, ४. श्रुतभवनदीपक, ५. तत्त्वसार, ६. आराधना, ७ धर्मसंग्रह | यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य अमितगति प्रथम - ये देवसेन के शिष्य और नेमिषेण के गुरु थे। इनके साथ त्यक्तनिःशेषसङ्ग विशेषण प्राप्त होता है। इनका समय विक्रम सं. १००० माना जाता है। इनकी एकमात्र कृति योगसार प्राभृत मानी जाती है। अमितगति द्वितीय- अमितगति की शिष्य परंपरा का ज्ञान अमरकीर्ति के 'छक्कम्मोवएस' से होता है। इस ग्रन्थ के अनुसार अमितगति (प्रथम) शान्तितिसेण अमरसेन (द्वितीय) श्रीसेन, चन्द्रकीर्ति और अमरकीर्ति इस प्रकार गुरु-शिष्य परंपरा प्राप्त होती है। अमितगति द्वितीय का काल विक्रम संवत् की ११वीं शताब्दी माना जाता है। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं १. धर्मपरीक्षा, २. सुभाषितरत्नसन्दोह, ३. उपासकाचार, ४. पञ्चसंग्रह, ५. आराधना ६. भावनाद्वात्रिंशिका, ७. चन्द्रप्रज्ञप्ति, ८. सार्द्धद्वयद्वीपप्रज्ञप्ति, ९. व्याख्याप्रज्ञप्ति । आचार्य अमृतचन्द्रसूरि - ये आचार्य कुन्दकुन्द के सुप्रसिद्ध ग्रंथ समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय के टीकाकार के रूप में विख्यात हैं। ये टीकाएँ बड़ी प्रौढ़, अर्थगाम्भीर्यपूर्ण तथा ग्रन्थकार के हार्द को अभिव्यक्त करने में सक्षम हैं। इनका काल दशवीं शताब्दी का अंतिम भाग माना जाता है। इनकी रचनाओं में अध्यात्म और व्यवहार का सुन्दर समन्वय पाया जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की टीकाएँ अध्यात्म प्रधान हैं तो उनके साथ व्यवहर का सुमेल स्थापित करने के लिए अपने तत्त्वार्थसार और पुरूषार्थसिद्धयुपाय का प्रणयन किया वे एक अच्छे स्तुतिकार भी थे। अनेकान्त शैली का आश्रय लेकर २५२५ छन्दों के २५ अधिकारों में उन्होंने तीर्थंकरों की स्तुति लिखी है। यहाँ वे आचार्य समन्तभद्र की शैली को अपनाते हुए दिखाई देते हैं। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में हिंसा-अहिंसा का जैसा सूक्ष्म वर्णन है, वैसा अन्यत्र विरल है । अमृतचन्द्रसूरि की निम्नलिखित रचनाएँ हैं -- १. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, २. तत्त्वार्थसार, ३ . समयसाकलश, ४. समयसारटीका, ५. प्रवचनसार टीका, ६. पंचास्तिकाय टीका और ७. लघुतत्त्वस्फोट | आचार्य जयसेन ( प्रथम ) आचार्य जयसेन प्रथम लाडवागड संघ के आचार्य थे। इनकी गुरुपरंपरा इस प्रकार थी টট५१ Jain Education International - For Private - धर्मसेन के शिष्य शन्तिषेण, शान्तिषेण के गोपसेन, गोपसेन के भावसेन और भावसेन के शिष्य जयसेन थे। इन्होंने अपने वंश को योगीन्द्रवंश कहा है। इनके एकमात्र ग्रन्थ धर्मरत्नाकर में पुरुषार्थसिद्धयुपाय के १२५ पद्य उद्धृत हैं। आचार्य सोमदेवसूरि के उपासकाध्ययन के भी अनेक पद्य इन्होंने उद्धृत किए हैं। एक पद्य रामसेन के तत्त्वानुशासन का भी उद्धृत है । धर्मरत्नाकर में उसका रचनाकाल विक्रम संवत् १०५५ दिया गया है। जयसेन (द्वितीय) आचार्य जयसेन कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय ग्रन्थों के सुप्रसिद्ध टीकाकार हैं। इनके गुरु का नाम सोमसेन और दादागुरु का नाम विद्वानों ने इनका समय ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध या बारहवीं वीरसेन था। इन्होंने त्रिभुवनचन्द्र गुरु को भी नमस्कार किया है। शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना है। इनकी टीकाओं की शैली आचार्य अमृतचन्द्र से भिन्न है। प्रत्येक गाथा के पदों का शब्दार्थ स्पष्ट करते हुवे गाथा के अभिप्राय को सरल संस्कृत में अभिव्यक्त करते हैं। इनकी टीकाएँ निश्चय और व्यवहार का समन्वय लिए हुए हैं तथा पारिभाषिक शब्दों के अर्थ इन्होंने अच्छी तरह स्पष्ट किए हैं। - आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती - आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अभयनन्दि, वीरनन्दि, इंद्रनन्दि और कनकनन्दि इन चार गुरुओं का स्मरण किया है। ये सभी सिद्धान्तसमुद्र के परगामी थे। बाहुबलिचरित के अनुसार जब चामुण्डाराय अपनी माता के साथ गोम्मटसार की मूर्ति के दर्शन के लिए पोदनपुर गए थे तो नेमिचन्द्र भी उनके साथ थे। नेमिचन्द्र आचार्य को ही यह स्वप्न आया था कि विन्ध्यगिरि पर गोम्मटेश्वर मूर्ति है। उसके पश्चात् ही चामुण्डराय ने वहाँ मूर्ति की स्थापना की और नेमिचन्द्र के चरणों में चामुण्डराय ने मूर्ति की पूजा के निमित्त ग्राम अर्पित किए, जिनकी आय ९६००० द्रव्यप्रमाण थी। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती की तीन रचनाएं प्राप्त हैं-(१) गोम्मटसार, (२) लब्धिसार और (३) त्रिलोकसार । गोम्मटसार और त्रिलोकसार की रचना विक्रम सं. १०३७-४० में हुई है। नेमिचन्द्र देशियगण पुस्तकगच्छ से संबंधित थे। यह कुन्दकुन्दान्वय के नन्दिसंघ की शाखा थी । माधवचन्द्र त्रैविध्य - आचार्य नेमिचन्द्र के एक शिष्य माधवचंद्र त्रैविध्य थे। उन्होंने अपने गुरु के द्वारा निर्मित त्रिलोकसार ग्रंथ पर संस्कृत में टीका रची थी। उन्होंने अपनी टीकाकार प्रशस्ति membimbi Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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