________________
- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार सम्यक ज्ञान का अर्थ
ज्ञेय नहीं बन सकता, लेकिन अनात्म तत्व तो ऐसा है जिसे हम ___ ज्ञान को मुक्ति का साधन स्वीकार किया गया है, लेकिन
ज्ञाता और ज्ञेय के द्वैत के आधार पर जान सकते हैं। सामान्य कौन सा ज्ञान मुक्ति के लिए आवश्यक है, यह विचारणीय है।
व्यक्ति भी अपने साधारण जान के द्वारा इतना तो ज्ञान ही सकता जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान के दो रूप पाए जाते हैं। सामान्य दृष्टि
है कि उसके ज्ञान के विषय क्या हैं? और जो उसके ज्ञान के
विषय हैं वे उसके स्वस्वरूप नहीं हैं, वे अनात्म हैं। सम्यक ज्ञान से सम्यक् ज्ञान अनेकान्त या वैचारिक अनाग्रह है और इस रूप में वह विचार शुद्धि का माध्यम है। जैन दर्शन के अनुसार एकान्त
आत्मज्ञान है, किन्तु आत्मा को अनात्म के माध्यम से ही मिथ्यात्व है क्योंकि वह सत्य के अनन्त पक्षों का अपलाप
पहचाना जा सकता है। अनात्म के स्वरूप को जानकर अनात्म करता है। एकान्त या आग्रह की उपस्थिति में व्यक्ति सत्य को
से आत्म का भेद करना यही भेद विज्ञान है और यही जैन दर्शन सम्यक प्रकार से नहीं समझ सकता है। जब तक आग्रह बुद्धि है
में सम्यक् ज्ञान का मूल अर्थ है। तब तक वीतरागता संभव ही नहीं है और जब तक वीतराग दृष्टि इस प्रकार जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान आत्म-अनात्म का नहीं है तब तक यथार्थ ज्ञान भी असंभव है। जैन दर्शन के विवेक है। आचार्य अमृतचंद्रसूरि के अनुसार जो कोई सिद्ध हुए अनुसार सत्य के अनंत पहलुओं को जानने के लिए अनेकान्त हैं वे इस आत्म-अनात्म के विवेक या भेद विज्ञान से ही सिद्ध दृष्टि सम्यक ज्ञान है। एकान्त दृष्टि या वैचारिक आग्रह अपने में हुए हैं और जो बंधन में है, वे इसके अभाव के कारण ही हैं।१३ निहित छद्म राग के कारण सत्य को रंगीन कर देता है इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में इस भेद विज्ञान का अत्यंत एकान्त या आग्रह सत्य के साक्षात्कार में बाधक है। परम सत्य गहन विवेचन किया है। आचार्य कुन्दकुन्द का यह विवेचन अनेक को अपने संपूर्ण रूप से आग्रह बुद्धि नहीं देख सकती। जब तक बार हमें बौद्ध त्रिपिटकों की याद दिला देता है जिसमें अनात्म का आंखों पर राग, द्वेष, आसक्ति या आग्रह का रंगीन चश्मा है, विवेचन इतनी ही अधिक गंभीरता से किया गया है।१४ अनावृत्त सत्य का साक्षात्कार संभव नहीं है। वैचारिक आग्रह न केवल व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास को कुण्ठित करता है,
सम्यक चारित्र का अर्थ वरन् सामाजिक जीवन में भी विग्रह और वैमनस्य के बीज बो
जैन परंपरा में सम्यक चारित्र के दो रूप माने गए हैं - देता है। सम्यक् ज्ञान एक अनाग्रही दृष्टि है। वह उस भ्रांति का १- व्यवहार और २. निश्चय चरित्र। आचरण का बाह्य पक्ष या भी निराकरण करता है कि सत्य मेरे ही पास है, वरन वह हमें आचरण के विधि विधान व्यवहार चरित्र कहे जाते हैं। जबकि बताता है कि सत्य हमारे पास भी हो सकता है और दूसरों के
आचरण की अन्तरात्मा निश्चय चरित्र कही जाती है। जहाँ तक पास भी। सत्य न मेरा है न पराया, जो भी उसे मेरा और पराया नैतिकता के वैयक्तिक दृष्टिकोण का प्रश्न है अथवा व्यक्ति करके देखता है वह उसे ठीक प्रकार से समझ ही नहीं सकता। के आध्यात्मिक विकास का प्रश्न है, निश्चयात्मक चारित्र ही सूत्रकृतांग में कहा गया है कि जो अपने-अपने मत की प्रशंसा उसका मूलभूत आधार है। लेकिन जहाँ तक सामाजिक जीवन और दूसरे मत की निंदा करने में अपना पांडित्य दिखाते हैं वे का प्रश्न है चारित्र का बाह्य पक्ष ही प्रमुख है। एकान्तवादी संसार चक्र में भटकते फिरते हैं।१२ अतः जैन निश्चय दृष्टि से चारित्र--निश्चयदृष्टि से चारित्र का सच्चा अर्थ साधना की दृष्टि से वीतरागता को उपलब्ध करने के लिए समभाव या समत्व की उपलब्धि है।५ मानसिक या चैत्तिसिक वैचारिक आग्रह का परित्याग और अनाग्रही दृष्टि का निर्माण जीवन में समत्व की उपलब्धि ही चारित्र का पारमार्थिक या आवश्यक है और यही सम्यक ज्ञान भी है।
नैश्चयिक पक्ष है। वस्तुतः चारित्र का यह पक्ष आत्म-स्मरण की एक अन्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान आत्म-अनात्म का विवेक स्थिात ह।
म का विवेक स्थिति है। नैश्चयिक चारित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था है। यह सही है कि आत्मतत्त्व को ज्ञान का विषय नहीं बनाया में ही होता है। अप्रमत्त चेतना की अवस्था में होने वाले सभी जा सकता है, उसे ज्ञाता ज्ञेय के द्वैत के आधार पर नहीं जाना जा कार्य शुद्ध ही माने गए हैं। चेतना में राग, द्वेष, कषाय और सकता है क्योंकि वह स्वयम् ज्ञान स्वरूप है, ज्ञाता है और ज्ञाता वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शान्त हो जाती तभी. सच्चे नैतिक
wirdmiraradibasardarodesdoodwidroominionito-५७ 6006606A6AGAGGAGro-shodnabraditoria
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org