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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ किसी एकान्तवादिता में नहीं पड़ते हैं। उनके अनुसार तो ज्ञान, कर्म और भक्ति की समवेत साधना ही मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है। इनमें से किसी एक के अभाव में मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र 'के अनुसार दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के अभाव में आचरण सम्यक् नहीं होता है और सम्यक् आचरण के अभाव में मुक्ति भी नहीं होती है । इस प्रकार मुक्ति की प्राप्ति के लिए तीनों ही अंगों का होना आवश्यक है। सम्यक दर्शन का अर्थ
जैन आगमों में दर्शन शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है और इसके अर्थ के संबंध में जैन परंपरा में काफी विवाद रहा है। दर्शन शब्द को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध या प्रज्ञा और ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है।" नैतिक जीवन की दृष्टि से दर्शन शब्द का दृष्टिकोणपरक अर्थ भी लिया गया है।' दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग दृष्टिकोणपरक अर्थ का द्योतक है। जैन आगमों में दर्शन शब्द का एक अर्थ तत्त्व श्रद्धा भी माना गया है। परवर्ती जैनसाहित्य में दर्शन शब्द को देव गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त किया गया है। १° इस प्रकार जैनपरंपरा में सम्यक् दर्शन तत्त्व - साक्षात्कार, आत्मसाक्षात्कार, अंतर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अनेक अर्थों को अपने में समेटे हुए है।
सम्यक् दर्शन शब्द के इन विभिन्न अर्थों पर विचार करने से पहले हमें यह देखना होगा कि इनमें से कौन सा अर्थ ऐतिहासिक दृष्टि से प्रथम था और किन-किन ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण यही शब्द अपने दूसरे अर्थ में प्रयुक्त हुआ । प्रथमतः हम यह देखते हैं कि बुद्ध और महावीर के युग में प्रत्येक धर्मप्रवर्तक अपने सिद्धान्त को सम्यक् दृष्टि और दूसरे
सिद्धान्त को मिथ्या दृष्टि कहता था, लेकिन यहाँ पर मिथ्या दृष्टि शब्द मिथ्या श्रद्धा के अर्थ में नहीं वरन् गलत दृष्टिकोण के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है । जीवन और जगत् के संबंध में अपने से भिन्न दूसरों के दृष्टिकोणों को ही मिथ्या दर्शन कहा जाता है। प्रत्येक धर्मप्रवर्तक आत्मा और जगत् के स्वरूप के विषय में अपने दृष्टिकोण को सम्यक् दृष्टि और अपने विरोधी के दृष्टिकोण को मिथ्या दृष्टि कहता है । सम्यक् दर्शन शब्द अपने दृष्टिकोण के अर्थ के बाद तत्त्वार्थ- श्रद्धान के अर्थ में भी अभिरूढ़ हुआ ।
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जैन-साधना एवं आचार तत्त्वार्थ- श्रद्धान के अर्थ में भी सम्यक् दर्शन शब्द अपने मूल अर्थ से अधिक दूर नहीं हुआ था, यद्यपि उसकी दिशा बदल चुकी थी । उसमें श्रद्धा का तत्त्व प्रतिष्ठित हो गया था। यद्यपि यह श्रद्धा तत्व के स्वरूप की मान्यता के सन्दर्भ में ही थी । वैयक्तिक श्रद्धा का विकास बाद की बात थी । यह श्रद्धा बौद्धिक श्रद्धा थी। लेकिन जैसे भागवत सम्प्रदाय का विकास हुआ उसका प्रभाव श्रमण परंपराओं पर भी पड़ा । तत्त्वार्थ श्रद्धा अब बुद्ध और जिन पर केन्द्रित होने लगी। वह ज्ञानात्मक से भावात्मक और निर्वैयक्तिक से वैयक्तिक बन गई। जिसने जैन और बौद्धपरंपराओं में भक्ति के तत्त्व का वपन किया । यद्यपि यह सब कुछ आगम एवं पिटक -ग्रंथों के संकलन एवं उनके लिपिबद्ध होने तक हो चुका था । फिर भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सम्यक् दर्शन का दृष्टिकोणपरक अर्थ भाषाशास्त्रीय विश्लेषण की दृष्टि से उसका प्रथम एवं मूल अर्थ है । तत्त्व- श्रद्धापरक अर्थ एक परवर्ती अर्थ है। यद्यपि ये परस्पर विपरीत नहीं है। आध्यात्मिक साधना के लिए दृष्टिकोण की यथार्थता अर्थात् राग-द्वेष से पूर्ण विमुक्त दृष्टि का होना आवश्यक है, किन्तु साधक अवस्था में राग द्वेष से पूर्ण विमुक्ति संभव नहीं है। अतः जब तक वीतराग दृष्टि या यथार्थ दृष्टि उपलब्ध नहीं होती तब तक वीतराग के वचनों पर श्रद्धा आवश्यक है।
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सम्यक् दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कह या तत्त्वार्थ श्रद्धान उसमें वास्तविकता की दृष्टि से अधिक अंतर नहीं होता है। अंतर होता है उनकी उपलब्धि की विधि में । एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसी सत्य का उद्घाटन कर वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है किन्तु दूसरा व्यक्ति ऐसे वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है । यद्यपि यहाँ दोनों का ही दृष्टिकोण यथार्थ होगा, फिर भी एक ने उसे स्वानुभूति में पाया है, दूसरे ने उसे श्रद्धा के माध्यम से एक ने तत्त्व - साक्षात्कार किया है तो दूसरे ने तत्त्व श्रद्धा । फिर भी हमें यह मान लेना चाहिए कि तत्त्व - श्रद्धा मात्र उस समय तक के लिए एक अनिवार्य विषय है; जब तक कि तत्त्व साक्षात्कार नहीं होता। पंडित सुखलालजी के शब्दों में तत्त्व - श्रद्धा ही सम्यक् दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ तत्त्व साक्षात्कार या स्वानुभूति ही है और यही सम्यक् दर्शन का वास्तविक अर्थ है ।। "
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