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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ- जैन-साधना एवं आचार
(ख) वह जानवर उस जानवर से विलक्षण है। (ग) वह व्यक्ति उस व्यक्ति से छोटा है।
इन रूपों में प्रथम जिसमें प्रत्यक्ष और स्मृति के संकलन हैं पूर्व मान्यता का समर्थन करता है, किन्तु अन्य दो रूप जिनमें क्रमशः प्रत्यक्ष के साथ प्रत्यक्ष के तथा स्मृति के साथ स्मृति के संकलन हैं, पूर्व मान्यता से भिन्न प्रतीत होते हैं। ऐसा लगता है कि इन दोनों रूपों में संकलित होने वाले दो ज्ञानों के बीच मात्र पूर्व और पर को ही विचार के अंतर्गत रखा गया है।
जैनेतर मान्यताएँ
जैनदर्शन के अतिरिक्त बौद्ध, न्याय, मीमांसा आदि दर्शनों में भी प्रत्यभिज्ञान पर किसी न किसी रूप में विचार किया गया है, जो इस प्रकार है
बौद्ध दर्शन - इस दर्शन में क्षणभंगवाद की जो मान्यता है उससे हम लोग परिचित हैं। जब प्रत्येक वस्तु हर क्षण बदलती रहती है तो यह वही है इसे कैसे ग्रहण किया जा सकता है। इसके अलावा यह और वह दो ज्ञानों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह वर्तमान के प्रत्यक्ष ज्ञान को बताता है तथा वह भूतकालीन ज्ञान को इंगित करता है। ये दोनों ज्ञान के अलग-अलग प्रकार हैं। फिर दोनों को संकलित करके एक नाम के अंतर्गत कैसे लाया जा सकता है ?
न्याय तथा मीमांसा-ये दोनों ही दर्शन प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण के अंतर्गत स्थान देते हैं। यह वही है। इसमें यह वर्तमान को बताता है तथा वह भूत को प्रस्तुत करता है । किन्तु दोनों के बीच जो एकत्व है वह स्मरण के संयोग से जाना जाता है। उस एकत्व का बोध भी तो इंद्रिय से ही होता है। अतः यह प्रत्यक्ष बोध है। यद्यपि जयंत भट्ट ने यह माना है कि स्मरण और प्रत्यक्ष के बीच जो एकत्व का संकलन करता है वह एक स्वतंत्र मानस ज्ञान है, किन्तु उन्होंने भी इसे अलग से प्रमाण नहीं माना है । १५
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उसी को सजा दी जाती है, जो बंधन में था वही साधना करके मुक्त होता है। इन सब व्यवहारों में भूत और वर्तमान का एकत्व ज्ञान होता है। ये व्यवहार प्रत्यभिज्ञान के समर्थक माने जा सकते हैं।
न्याय और मीमांसा ने प्रत्यभिज्ञान में संकलित भूत और वर्तमान के एकत्व को इंद्रियजन्य मानकर उसे मात्र प्रत्यक्ष का विषय माना है १६ । इंद्रियाँ केवल अपने विषय को ग्रहण करती हैं। इंद्रियों का विषय अलग-अलग होता है। किसी के सहयोग से कोई भी इंद्रिय किसी अविषय को ग्रहण नहीं कर सकती है। स्मरण की सहायता से नेत्र गन्ध को ग्रहण नहीं कर सकता, त्वचा से रस का बोध नहीं हो सकता। अतः न्याय तथा मीमांसा का यह मानना कि प्रत्यभिज्ञान मात्र प्रत्यक्ष है गलत है। जयंत भट्ट ने तो इसे एक स्वतंत्र मानस ज्ञान माना ही है । ९७
इतना ही नहीं बल्कि न्याय और मीमांसा दोनों ने ही उपमान को एक स्वतंत्र प्रमाण माना है" । गाय की तरह नीलगाय होती है ऐसी जानकारी के बाद कोई व्यक्ति जंगल में जाता है और ऐसा कोई जानवर वह देखता है जो गाय की तरह ही है तो वह समझ जाता है यह नीलगाय है। जैनमत में यह सादृश्यप्रत्यभिज्ञान है। यदि न्याय तथा मीमांसा दर्शन सादृश्य- प्रत्यभिज्ञान को स्वतंत्र प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित कर सकतें हैं तो उनका प्रत्यभिज्ञान के अन्य प्रकारों के प्रति भी कोई विरोध नहीं होना चाहिए | किन्तु प्रत्यभिज्ञान ज्ञान के सभी प्रकारों को अलगअलग नामों से निरूपित करने के बजाय अच्छा है कि सबको एक नाम के अंतर्गत मान्यता दी जाए और प्रत्यभिज्ञान को एक स्वतंत्र प्रमाण मान लिया जाए।
तर्क
जैनमत- जैन-दर्शन उन विचारों का खण्डन करता है जो प्रत्यभिज्ञान के विरोध में दिए गए हैं। बौद्ध दर्शन ने क्षणभंगवाद को मानने के कारण प्रत्यभिज्ञान का खंण्डन किया है। किन्तु इसके लिए जैन-चिंतकों का कथन है कि मात्र क्षणभंगवाद को मानकर चलने से कोई भी व्यवहार संभव नहीं है। जिसने कर्ज लिया था, उसी से कर्ज वसूली होती है। जिसने गलती की थी,
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तर्क (तर्क + अच्) शब्द के लिए प्रायः युक्ति, वादविवाद, संदेह, आकांक्षा, कारण आदि शब्द प्रयोगदेखे जाते हैं। अभिधानराजेन्द्र कोष में तर्क, तर्कना, विचार, विमर्श, पर्यावलोचना आदि शब्दों को पर्यायवाची बताया गया है। हलायुधकोष में तर्क, आकांक्षा, हेतु, ज्ञान आदि शब्दों को समानार्थक समझा गया है। उपनिषद्, मनुस्मृति, महाभारत, आचारांग आदि प्राचीन ग्रंथों में तर्क शब्द के प्रयोग मिलते हैं। कठोपनिषद् - " -- नैषा तर्केण मतिपनेया ति। ।.... द्वितीयावल्ली। ' मनुस्मृति 22 -- आर्षधर्मोपदेशं च वेदशास्त्र विरोधिना ।
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