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________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार जैन-विचारणा में फलापेक्षा एवं फल-संशय दोनों को ही अनुचित माना साध्य, साधक और साधना-पथ तीनों पर अविचल श्रद्धा चाहिए। साधक गया है। कुछ जैनाचार्यों के अनुसार इसका अर्थ घृणा भी लगाया गया में जिस क्षण भी इन तीनों में से एक के प्रति भी सन्देहशीलता उत्पन्न है।५९ मुनिजन, रोगी एवं ग्लान व्यक्तियों के प्रति घृणा रखना घृणाभाव होती है, वह साधना के क्षेत्र में च्युत हो जाता है। यही कारण है कि जैनव्यक्ति को सेवापथ से विमुख बनाता है। विचारणा साधनात्मक जीवन के लिए नि:शंकता को आवश्यक मानती ४. मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा- जिन लोगों का दृष्टिकोण है। नि:शंकता की इस धारणा को प्रज्ञा और तर्क का विरोधी नहीं मानना सम्यक नहीं है ऐसे अयथार्थ दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों अथवा संगठनों की चाहिए। संशय ज्ञान के विकास में साधन हो सकता है लेकिन उसे साध्य प्रशंसा करना। मान लेना अथवा संशय में ही रुक जाना साधनात्मक-जीवन के उपयुक्त ५. मिथ्यादृष्टियों से अति परिचय- साधनात्मक अथवा नहीं हैं। मूलाचार में निःशंकता को निर्भयता माना गया है।६३ नैतिकता नैतिक जीवन के प्रति जिनका दृष्टिकोण अयथार्थ है, ऐसे व्यक्तियों से के लिए पूर्ण निर्भय जीवन आवश्यक है, भय पर स्थित नैतिकता सच्ची घनिष्ठ सम्बन्ध रखना। संगति का असर व्यक्ति के जीवन पर काफी नैतिकता नहीं है। अधिक होता है। चारित्र के निर्माण एवं पतन दोनों में ही संगति का २. निःकांक्षता- स्वकीय आनन्दमय परमात्मस्वरूप में निष्ठावान प्रभाव पड़ता है अत: अनैतिक आचरण करने वाले लोगों से अतिपरिचय रहना और किसी भी परभाव की आकांक्षा या इच्छा नहीं करना ही या घनिष्ठ सम्बन्ध रखना उचित नहीं माना गया है। नि:कांक्षता है। साधनात्मक जीवन में भौतिक वैभव अथवा ऐहिक तथा पं० बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में सम्यक्त्व के अतिचारों पारलौकिक सुख को लक्ष्य बना लेना, जैनदर्शन के अनुसार 'कांक्षा' की एक भिन्न सूची प्रस्तुत की है। उनके अनुसार सम्यग्दर्शन के निम्न है।६४ किसी भी लौकिक और पारलौकिक कामना को लेकर साधनात्मक पाँच अतिचार हैं __ जीवन में प्रविष्ट होना, जैन-विचारणा को मान्य नहीं है; वह ऐसी साधना १. लोकभय २. सांसारिक सुखों के प्रति आसक्ति ३. भावी को वास्तविक साधना नहीं कहती है, क्योंकि वह आत्म-केन्द्रत नहीं है। जीवन में सांसारिक सुखों के प्राप्त करने की इच्छा ४. मिथ्याशास्त्रों की भौतिक सुखों और उपलब्धियों के पीछे भागने वाला साधक चमत्कार प्रशंसा एवं ५. मिथ्या-मतियों की सेवा६० और प्रलोभन के पीछे किसी भी क्षण लक्ष्यच्युत हो सकता है। इस प्रकार अगाढ़ दोष वह दोष है जिसमें अस्थिरता रहती है। जिस प्रकार जैन साधना में यह माना गया है कि साधक को साधना के क्षेत्र में प्रविष्ट हिलते हुए दर्पण में यथार्थ रूप तो दिखता है लेकिन वह अस्थिर होता होने के लिए नि:कांक्षित अथवा निष्काम भाव से युक्त होना चाहिए। है, उसी प्रकार अस्थिर चित्त में सत्य का प्रकटन तो होता है लेकिन वह आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में नि:कांक्षता का अर्थ ऐकान्तिक भी अस्थिर होता है। स्मरण रखना चाहिए कि जैन-विचारणा के अनुसार मान्याताओं से दूर रहना किया है।६५ इस आधार पर अनाग्रहयुक्त उपर्युक्त दोषों की सम्भावना क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में होती है- उपशम दृष्टिकोण सम्यक्त्व के लिए आवश्यक माना गया है। सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व में नहीं होती है, क्योंकि उपशम ३. निर्विचिकित्सा- निर्विचिकित्सा के दो अर्थ माने गये हैं: सम्यक्त्व की समयावधि ही इतनी क्षणिक होती है कि दोष होने का (अ) मैं जो धर्म-साधना कर रहा हूँ इसका फल मुझे अवश्य अवकाश ही नहीं रहता और क्षायिक सम्यक्त्व पूर्ण शुद्ध होता है अतः मिलेगा या नहीं, मेरी यह साधना व्यर्थ तो नहीं चली जायेगी, ऐसी उसमें दोषों की सम्भावना नहीं रहती है। आशंका रखना 'विचिकित्सा' कहलाती हैं। इस प्रकार साधना और नैतिक क्रिया के फल के प्रति शंकित बने रहना विचिकित्सा है। शंकित सम्यग्दर्शन के आठ अंग हृदय से साधना करने वाले साधक में स्थिरता और धैर्य का अभाव होता उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्दर्शन की साधना के आठ अंग प्रस्तुत है और उसकी साधना सफल नहीं हो पाती है। अत: साधक के लिए यह किये गये हैं जिनका समाचरण साधक के लिए अपेक्षित है। दर्शनविशुद्धि आवश्यक है कि वह इस प्रतीति के साथ नैतिक आचरण का प्रारम्भ करे के संवर्द्धन और संरक्षण के लिए इनका पालन आवश्यक माना गया है। कि क्रिया और फल का अविनाभावी सम्बन्ध है और यदि चरण किया उत्तराध्ययन में वर्णित यह आठ प्रकार का दर्शनाचार निम्न है- जायेगा तो निश्चित रूप से उसका फल प्राप्त होगा ही। इस प्रकार क्रिया १. नि:शंकित २. नि:कांक्षित ३. निर्विचिकित्सा ४. अमूढ़दृष्टि के फल के प्रति सन्देह नहीं होना ही निर्विचिकित्सा है। ५. उपबृंहण ६. स्थिरीकरण ७. वात्सल्य, और ८. प्रभावना।६१ (ब) कुछ जैनाचार्यों के अनुसार तपस्वी एवं संयमपरायण १. निःशंकता- संशयशीलता का अभाव ही नि:शंकता हैं मुनियों के दुर्बल एवं जर्जर शरीर अथवा मलिन वेशभूषा को देखकर मन जिनप्रणीत तत्त्व-दर्शन में शंका नहीं करना-उसे यथार्थ एवं सत्य मानना, में ग्लानि लाना विचिकित्सा है। अत: साधक की वेशभूषा एवं शरीरादि ही नि:शंकता है।६२ संशयशीलता साधनात्मक जीवन के विकास का बाह्य रूप पर ध्यान नहीं देकर उसके साधनात्मक गुणों पर विचार करना विधायक तत्त्व है। जिस साधक की मनःस्थिति संशय के हिंडोले में झूल चाहिए। वेशभूषा एवं शरीर आदि बाह्य सौन्दर्य पर दृष्टि को केन्द्रित नहीं रही हो, वह भी इस संसार में झूलता रहता है (परिभ्रमण करता रहता है) करके आत्म-सौन्दर्य की ओर उसे केन्द्रित करना यही सच्ची निर्विचिकित्सा और अपने लक्ष्य को नहीं पा सकता। साधना के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए है। आचार्य समन्तभद्र का कथन है-शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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