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________________ यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व कृतित्व गुरुदेव के सान्निध्य में एक वर्ष तक रहकर धार्मिक अध्ययन किया। यह स्वाभाविक ही है कि जैनागमों के महापंडित गुरुदेव के सान्निध्य में रहते हुए आपने भी अपने गुरुदेव से आगमों का ज्ञान प्राप्त किया। जैन- भागवती दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् तो आपने अपना सम्पूर्ण ध्यान गुरुसेवा, संयम पालन और धार्मिक अध्ययन में लगा दिया। परिणाम यह हुआ कि शीघ्र ही आपकी ख्याति विद्वान् मुनिराज के रूप में हो गई। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण उस समय देखने को मिला जब वि.सं. १९८० के रतलाम वर्षावास अवसर पर श्रीमद् सागरानन्द सूरि ने, जो जैनाचार्यों में आगम ज्ञान के प्रखर धारक माने जाते थे, आपके सामने 'जैन श्वेताम्बर साधुओं को श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिए या पीत' विषय पर शास्त्रार्थ करने का प्रस्ताव रखा। आप ने तत्काल शास्त्रार्थ का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया ? उस समय के मूर्धन्य विद्वानों और प्रतिष्ठित वयोवृद्ध अनुभवी श्रावकों की एक निर्णायक समिति भी बनी। दोनों के मध्य लिखित रूप में शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। यह शास्त्रार्थ सात मास तक चलता रहा। आप के आचरांग आदि अनेक आगमों के प्रमाणों तथा युक्ति-युक्त तर्कों के आगे अंत में श्री सागरानन्द सूरि का हठाग्रह निंदा का कारण बनने लगा। जब कोई उपाय शेष नहीं रहा तो श्री सागरानंद सूरि किसी को सूचित किए बिना ही रतलाम से रात में विहार कर गए। निर्णायक समिति ने आपको विजेता घोषित कर एक प्रमाण-पत्र आपश्री को समर्पित किया। यह था आप के आगममर्मज्ञ होने का प्रमाण । आप के आगम मर्मज्ञ होने का दूसरा प्रमाण आप द्वारा लिखित पुस्तक 'तीन स्तुति की प्राचीनता' है। इसमें आप ने जैनागमों और ऐतिहासिक प्रमाणों से तीन स्तुति की प्राचीनता सिद्ध की है। दूसरी पुस्तक जैनर्षिपट्ट निर्णय में भी आप के आगम ज्ञान की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। इसी प्रकार कुलिंगवनोदगार पुस्तक से भी आप की आगमविद्वत्ता प्रकट होती है। इसके अतिरिक्त आप के प्रवचन साहित्य का अनुशीलन करने पर भी हम पाते हैं कि आपश्री को आगम साहित्य का तलस्पर्शी ज्ञान था। आप के आगम मर्मज्ञ होने का एक अन्य प्रमाण है, आपश्री द्वारा दशवैकालिक सूत्र के चार अध्ययन् का शब्दार्थ- भावार्थ सहित 'अध्ययन चतुष्टय' नामक ग्रंथ । जो आगम-मर्मज्ञ होता है वही ऐसे ग्रंथ प्रस्तुत करने की क्षमता रखता है। प्रातःस्मरणीय गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने चौदह-पन्द्रह वर्षों के कठोर परिश्रम से श्री अभिधान राजेन्द्र कोश का निर्माण किया। यह कोशरत्न सात खण्डों में है। इस कोश में समस्त जैन शास्त्र एवं आगम तथा आचार्यों के विरचित प्रामाणिक एवं उपयोगी ग्रंथों का समावेश किया गया है। कोश की संकलना इस प्रकार की गई है कि प्रथम प्राकृत सम्बन्धी शब्द लिखकर उसका संस्कृत रूप दिया गया है। तत्पश्चात् उसके लिंग तथा व्युत्पत्ति दिए गए हैं और फिर उसके होने एवं मिलने वाले अनेक अर्थ सप्रयोग-आधार, अध्ययन तथा उद्देश्यों के अंकन सहित आगमों के ग्रन्थान्तरों के उदाहरण सहित अवतरण दिए हैं तथा व्याख्यादि बड़ी ही कुशलता एवं योग्यता पूर्वक दी गई है। जहाँ-जहाँ शब्द के विस्तृत एवं बहु अधिकार आए हैं, वहाँ-वहाँ सूची दी गई है। फलतः किसी विषय, शब्द और अर्थ तथा Jain Education International moden. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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