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- चीन्दरिमारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - अत: दस प्रकीर्णक के अन्तर्गत किन-किन ग्रन्थों को समाहित प्रकीर्णक में मुख्य रूप से चतुर्विध संघ के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए करना चाहिये, इस सन्दर्भ में श्वेताम्बर-आचार्यों में कहीं भी एकरूपता जैन-साधना का परिचय दिया गया है। आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, देखने को नहीं मिलती है। इससे यह फलित होता है कि प्रकीर्णक मरणसमाधि, संस्तारक, आराधनापताका, आराधनाप्रकरण, भक्तप्रत्याख्यान ग्रन्थों की संख्या दस है, यह मान्यता न केवल परवर्ती है अपितु उसमें आदि प्रकीर्णक जैन-साधना के अन्तिम चरण समाधिमरण की पूर्व तैयारी एकरूपता का भी अभाव है। भिन्न-भिन्न श्वेताम्बर आचार्य भिन्न-भिन्न और उसकी साधना की विशेष विधियों का चित्रण प्रस्तुत करते हैं। इस सूचियाँ प्रस्तुत करते रहे हैं उनमें कुछ नामों में तो एकरूपता होती प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में जैनविद्या के विविध पक्षों का समावेश हुआ है, किन्तु सभी नामों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है। जहाँ है, जो जैन-साहित्य के क्षेत्र में उनके मूल्य और महत्त्व को स्पष्ट कर देता है। तक दिगम्बर-परम्परा का प्रश्न है उसमें तत्त्वार्थभाष्य का अनुसरण करते हुए अंग-आगमों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों को प्रकीर्णक कहने की ही प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल परम्परा रही है। अत: प्रकीर्णकों की संख्या अमुक ही है, यह कहने जहाँ तक प्रकीर्णकों की प्राचीनता का प्रश्न है उनमें से अनेक का कोई माणिक आधार नहीं है। वस्तुतः अंग-आगम साहित्य के प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में होने से वे उससे प्राचीन सिद्ध हो अतिरक्ति सम्पूर्ण अंगबाह्य आगम-साहित्य प्रकीर्णक के अन्तर्गत आते जाते हैं। मात्र यही नहीं प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रन्थों में से अनेक हैं। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य जैन-आगम-साहित्य के अति विशाल तो अंग-आगमों की अपेक्षा प्राचीन स्तर के रहे हैं, क्योंकि ऋषिभाषित भाग का परिचायक है और उनकी संख्या को दस तक सीमित करने का स्थानांग एवं समवायांग में उल्लेख है। ऋषिभाषित आदि कुछ का दृष्टिकोण पर्याप्त रूप से परवर्ती और विवादास्पद है। ऐसे प्रकीर्णक हैं जो भाषा-शैली, विषय-वस्तु आदि अनेक आधारों
पर आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर शेष आगमों की अपेक्षा प्रकीर्णक साहित्य का महत्त्व
भी प्राचीन हैं। ऋषिभाषित उस काल का ग्रन्थ है, जब जैनधर्म सीमित यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर जैनों के स्थानकवासी और तेरापंथी सीमाओं में आबद्ध नहीं हुआ था वरन् उसमें अन्य परम्पराओं के श्रमणों सम्प्रदाय प्रकीर्णकों को आगमों के अन्तर्गत मान्य नहीं करते हैं, किन्तु को भी आदर पूर्वक स्थान प्राप्त था। इस ग्रन्थ की रचना उस युग प्रकीर्णकों की विषय-वस्तु का अध्ययन करने से ऐसा लगता है कि में सम्भव नहीं थी, जब जैनधर्म भी सम्प्रदाय के क्षुद्र घेरे में आबद्ध अनेक प्रकीर्णक अंग-आगमों की अपेक्षा भी साधना की दृष्टि से हो गया। लगभग ई० पू० तीसरी शताब्दी से जैनधर्म में जो साम्प्रदायिक महत्त्वपूर्ण हैं। यद्यपि यह सत्य है कि आचार्य वीरभद्र द्वारा ईसा की अभिनिवेश दृढ़ हो रहे थे, उसके संकेत सूत्रकृतांगसूत्र और भगवतीसूत्र दसवीं शती में रचित कुछ प्रकीर्णक अर्वाचीन है, किन्तु इससे सम्पूर्ण जैसे प्राचीन आगमों में भी मिल रहे हैं। भगवतीसूत्र में जिस मंखलिपुत्र प्रकीर्णकों की अर्वाचीनता सिद्ध नहीं होती। विषय-वस्तु की दृष्टि से गोशालक की कटु आलोचना है, उसे ऋषिभाषित अर्हत् ऋषि कहता प्रकीर्णक साहित्य में जैनविद्या के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, तंदुलवैचारिक, मरणविभक्ति है। जहाँ तक देवेन्द्रस्तव और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति प्रकीर्णक का प्रश्न है, आदि प्रकीर्णक साहित्य के ऐसे ग्रन्थ हैं-जो सम्प्रदायगत आग्रहों वे मुख्यतः जैन खगोल और भूगोल की चर्चा करते हैं। इसी प्रकार से मुक्त हैं। सूत्रकृतांगसूत्र में ऋषिभाषित के अनेक ऋषियों का तित्थोगाली प्रकीर्णक में भी जैन-काल-व्यवस्था का चित्रण विभिन्न सम्मानपूर्वक उल्लेख और उन्हें अर्हत् परम्परा द्वारा सम्मत माना जाना भौगोलिक क्षेत्रों के सन्दर्भ में हुआ है। ज्योतिष्करण्डक और गणिविद्या- भी यही सूचित करता है कि ऋषिभाषित इन अंग-आगमों से भी प्राचीन प्रकीर्णक का सम्बन्ध मुख्यतया जैन-ज्योतिष से है। तित्थोगाली प्रकीर्णक है। पुन: ऋषिभाषित जैसे कुछ प्राचीन प्रकीर्णकों की भाषा का अर्धमागधी मुख्यरूप से प्राचीन जैन-इतिहास को प्रस्तुत करता है। श्वेताम्बर-परम्परा स्वरूप तथा आगमों की अपेक्षा उनकी भाषा में महाराष्ट्री भाषा की में तित्थोगाली ही एकमात्र ऐसा प्रकीर्णक है जिसमें आगमज्ञान के क्रमिक अल्पता भी यही सिद्ध करती है कि ये ग्रन्थ प्राचीन स्तर के हैं। नन्दीसूत्र उच्छेद की बात कही गई है। सारावली प्रकीर्णक में मुख्य रूप से में प्रकीर्णक के नाम से अभिहित नौ ग्रन्थों का उल्लेख भी यही सिद्ध शत्रुञ्जय महातीर्थ की कथा और महत्त्व उल्लिखित है। तंदुलवैचारिक करता है कि कम से कम ये नौ प्रकीर्णक तो नन्दीसूत्र से पूर्ववर्ती प्रकीर्णक जैन-जीवविज्ञान का सुन्दर और संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करता हैं। नन्दीसूत्र का काल विद्वानों ने विक्रम की पाँचवीं शती माना है, है। इसी प्रकार अंगविद्या नामक प्रकीर्णक मानव-शरीर के अंग-प्रत्यंगों अत: ये प्रकीर्णक उससे पूर्व के हैं। इसी प्रकार समवायांगसूत्र में स्पष्ट के विवरण के साथ-साथ उनके शुभाशुभ लक्षणों का भी चित्रण करता रूप से प्रकीर्णकों का निर्देश भी यही सिद्ध करता है कि समवायांगसूत्र है और उनके आधार पर फलादेश भी प्रस्तुत करता है। इस प्रकार के रचनाकाल अर्थात् विक्रम की तीसरी शती में भी अनेक प्रकीर्णकों इस ग्रन्थ का सम्बन्ध शरीर-रचना एवं फलित ज्योतिष दोनों विषयों का अस्तित्व था। से है। गच्छाचार प्रकीर्णक में जैन-संघ-व्यवस्था का चित्रण उपलब्ध इन प्रकीर्णकों में देवेन्द्रस्तव के रचनाकार ऋषिपालित हैं। कल्पसूत्र होता है, जबकि चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में गुरु-शिष्य के सम्बन्ध एवं स्थविरावली में ऋषिपालित का उल्लेख है। इनका काल ईसा-पूर्व प्रथम शिक्षा- सम्बन्धों का निर्देश है। वीरस्तव प्रकीर्णक में महावीर के विविध शती के लगभग है। इसकी विस्तृत चर्चा हमने देवेन्द्रस्तव (देविंदत्थओ) विशेषण के अर्थ की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या की गई है। चतुःशरण की प्रस्तावना में की है" (इच्छुक पाठक उसे वहाँ देख सकते हैं)।
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