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________________ आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल एवं रचयिता आगम-साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान आचार्य जिनप्रभ के विधिमार्गप्रपा (लगभग ईसा की तेरहवीं शती) में किसी भी धार्मिक परम्परा का आधार उसके धर्मग्रन्थ होते हैं, मिलता है। इससे यह फलित होता है कि तेरहवीं शती से पूर्व आगमों जिन्हें वह प्रमाणभूत मानकर चलती है। जिस प्रकार मुसलमानों के के वर्गीकरण में कहीं भी प्रकीर्णक वर्ग का स्पष्ट निर्देश नहीं है, किन्तु लिये कुरान, ईसाइयों के लिये बाइबिल, बौद्धों के लिये त्रिपिटक और इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिये कि उसके पूर्व न तो हिन्दुओं के लिये वेद प्रमाणभूत ग्रन्थ हैं, उसी प्रकार जैनों के लिये प्रकीर्णक साहित्य था और न ही इनका कोई उल्लेख था। आगम प्रमाणभूत ग्रन्थ हैं। सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र, नन्दीसूत्र और अंग-आगमों में सर्वप्रथम समवायांगसूत्र में प्रकीर्णक का उल्लेख पाक्षिकसूत्र में आगमों का वर्गीकरण अंगबाह्य के रूप में किया गया हुआ है। उसमें कहा गया है कि भगवान् ऋषभदेव के चौरासी हजार है। परम्परागत अवधारणा यह है कि तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट और गणधरों शिष्यों द्वारा रचित चौरासी हजार प्रकीर्णक थे। परम्परागत अवधारणा द्वारा रचित ग्रन्थ अंगप्रविष्ट आगम कहे जाते हैं। इनकी संख्या बारह यह है कि जिस तीर्थङ्कर के जितने शिष्य होते हैं, उसके शासन में है, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में समान रूप से स्वीकृत उतने ही प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना होती है। सामान्यतया प्रकीर्णक है। इन अंग-आगमों के नाम हैं-१. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, शब्द का तात्पर्य होता है-विविध ग्रन्थ। मुझे ऐसा लगता है कि प्रारम्भ ३. स्थानांग, ४. समवायांग, ५.व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. ज्ञाताधर्मकथांग, में आगमों के अतिरिक्त सभी ग्रन्थ प्रकीर्णक की कोटि में माने जाते ७. उपासकदशांग, ८. अन्तकृद्दशांग, ९. अनुत्तरौपपातिकदशा थे। अंग-आगमों से इतर आवश्यक, आवश्यक-व्यतिरिक्त, कालिक १०. प्रश्नव्याकरणदशा, ११. विपाकदशा और १२. दृष्टिवाद। इनके एवं उत्कालिक के रूप में वर्गीकृत सभी ग्रन्थ प्रकीर्णक कहलाते थे। नाम और क्रम के सम्बन्ध में भी दोनों परम्पराओं में एकरूपता है। मेरे इस कथन का प्रमाण यह है कि षट्खण्डागम की धवला टीका मूलभूत अन्तर यह है कि जहाँ श्वेताम्बर-परम्परा आज भी दृष्टिवाद में बारह अंग-आगमों से भिन्न अंगबाह्य ग्रन्थों को प्रकीर्णक नाम दिया के अतिरिक्त शेष ग्यारह अंगों का अस्तित्व स्वीकार करती है, वहाँ गया है। उसमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि को भी दिगम्बर-परम्परा आज मात्र दृष्टिवाद के आधार पर निर्मित कसायपाहुड, प्रकीर्णक ही कहा गया है। यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णक नाम से षटखण्डागम आदि के अतिरिक्त इन अंग-आगमों को विलुप्त मानती है। अभिहित अथवा प्रकीर्णव वर्ग में समाहित सभी ग्रन्थों के नाम के अंगबाह्य वे ग्रन्थ हैं जो जिनवचन के आधार पर स्थविरों के अन्त में प्रकीर्णक शब्द ना मिलता है। मात्र कुछ ही ग्रन्थ ऐसे हैं द्वारा लिखे गए हैं। नन्दीसूत्र में अंग-बाह्य आगमों को भी प्रथमतः जिनके नाम के अन्त में पर्णक शब्द का उल्लेख हुआ है। फिर दो भागों में विभाजित किया गया है-१. आवश्यक और २. आवश्यक भी इतना निश्चित है कि प्रकीर्णकों का अस्तित्व अति प्राचीन काल व्यतिरिक्त। आवश्यक के अन्तर्गत सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना में भी रहा है, चाहे उन्हें प्रकीर्णक नाम से अभिहित किया गया हो प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान- ये छ: ग्रन्थ सम्मिलित रूप अथवा न किया गया हो। नन्दीसूत्रकार ने अंग-आगमों को छोड़कर से आते हैं, जिन्हें आज आवश्यकसूत्र के नाम से जाना जाता है। आगम रूप में मान्य सभी ग्रन्थों को प्रकीर्णक कहा है। अत: 'प्रकीर्णक' इसी ग्रन्थ में आवश्यक-व्यतिरिक्त आगम-ग्रन्थों को भी पुनः दो भागों शब्द आज जितने संकुचित अर्थ में है उतना पूर्व में नहीं था। उमास्वाति में विभाजित किया गया है-१. कालिक और २. उत्कालिक। आज और देववाचक के समय में तो अंग-आगमों के अतिरिक्त शेष सभी प्रकीर्णकों में वर्गीकृत नौ ग्रन्थ इन्हीं दो विभागों के अन्तर्गत उल्लिखित आगमों को प्रकीर्णक में ही समाहित किया जाता था। इससे जैन-आगमहैं। इसमें कालिक के अन्तर्गत ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, इन साहित्य में प्रकीर्णक का क्या स्थान है, यह सिद्ध हो जाता है। प्राचीन दो प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है, जबकि उत्कालिक के अन्तर्गत दृष्टि से तो अंग-आगमों के अतिरिक्त सम्पूर्ण जैन-आगमिक साहित्य देवेन्द्रस्तव, तन्दुलवैचारिक , चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, आतुरप्रत्याख्यान, प्रकीर्णक वर्ग के अन्तर्गत आता है। महाप्रत्याख्यान और मरणविभक्ति इन सात प्रकीर्णकों का उल्लेख है। वर्तमान में प्रकीर्णक-वर्ग के अन्तर्गत दस ग्रन्थ मानने की जो प्राचीन आगमों में ऐसा कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि अमुक- परम्परा है, वह न केवल अर्वाचीन है अपितु इस सन्दर्भ में श्वेताम्बरअमुक ग्रन्थ प्रकीर्णक के अन्तर्गत आते हैं। नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र आचार्यों में परस्पर मतभेद भी है कि इन दस प्रकीर्णकों में कौन दोनों में ही आगमों के विभिन्न वर्गों में कहीं भी प्रकीर्णक-वर्ग का से ग्रन्थ समाहित किये जाएँ। प्रद्युम्नसूरि ने विचारसारप्रकरण (चौदहवीं उल्लेख नहीं है। यद्यपि इन दोनों ग्रन्थों में आज हम जिन्हें प्रकीर्णक शताब्दी) में पैंतालीस आगमों का उल्लेख करते हुए कुछ प्रकीर्णकों मान रहे हैं, उनमें से अनेक का उल्लेख कालिक एवं उत्कालिक आगमों का उल्लेख किया है। आगम-प्रभाकर मुनिपुण्यविजयजी ने चार के अन्तर्गत हुआ है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि आगमों का अंग, अलग-अलग सन्दर्भो में प्रकीर्णकों की अलग-अलग सूचियाँ प्रस्तुत उपांग, छेद, मूल, चूलिका और प्रकीर्णक के रूप में उल्लेख सर्वप्रथम की हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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