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________________ कीर्तिकौमुदी में प्रयुक्त छन्द ___ डॉ. अशोक कुमार सिंह.... सामेश्वरदेवकृत कीर्तिकौमुदी' का ऐतिहासिक महाकाव्यों उदाहरण - श्रिये सन्तु सतामेते, चिरं चातुर्भुजा भुजाः। में महत्त्वपूर्ण स्थान है। गुजरात के बघेल राजवंश के राणक यामिका इव धर्मस्य, चत्वारः स्फुरदायुधाः।।९/९ लवण प्रसाद और वीरधवल के पुरोहित सोमेश्वरदेव और चालुक्य हर प्रासादसन्दोहमनोहरमिदं सरः। राजा भीमदेव के अमात्य सहोदर वस्तुपाल और तेजपाल में राजते नगरं तच्च, राजहंसैरलकृताम्।।७६/९।। . प्रगाढ़ मित्रता थी। वस्तुपाल के अपने प्रति सौहार्द्र, उसके अप्रतिम उपेन्द्रवजा ४ (उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ) इसके प्रत्येक चरण में पराक्रम, साहित्यिक प्रतिभा तथा यश से अभिभूत सोमेश्वर ने क्रमशः जगण, तगण और जगण के पश्चात् दो गुरु होते हैं। वस्तुपाल के गुणों की प्रशस्तिरूप 'कीर्तिकौमुदी' नामक काव्य उदाहरण ५-सशंखचक्रः प्रथितप्रभुतावतारशाली कमलाभिरामः। सहित कई प्रशस्तियों की रचना की। सोमेश्वरदेव उच्चकोटि के स एव कासारशिरोवतंसः कंसप्रहर्तुः प्रतिमा विभर्ति।।७७/९।। प्रतिभाशाली कवि थे, कीर्तिकौमुदी उनकी उत्कृष्ट साहित्यिक रचना उपजाति ६ - (अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ पादौ यदीयावपजातयस्ताः) है। इसमें प्रतिपाद्य तथ्यों का भी विशेष महत्त्व है, क्योंकि इसका नायक काव्य-प्रणेता का समकालीन है, चिरपरिचित है, प्रगाढ़ अर्थात् जिसमें इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा का लक्षण मिला मित्र है। कवि और काव्यनायक के समकालीन होने से काव्य की हो, उसका नाम उपजाति छन्द है। इंद्रवज्रा छन्द का लक्षण होता ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिकता बढ़ जाती है। है-स्यादिन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ अर्थात जिसके प्रत्येक चरण में कीर्तिकौमुदी में नौ सर्ग हैं और इसके श्लोकों की कुल दो तगण, एक जगण और दो गुरु हों तो उसको इंद्रवज्रा कहते हैं। संख्या ७२२ है। इसके सर्गों का नाम क्रमश: नगरवर्णन, नरेन्द्रवंश उदाहरण ७ वर्णन, मन्त्रप्रतिष्ठा, दूतसमागम, युद्धवर्णन, पुरप्रमोदवर्णन, उपेन्द्रवज्रा इंद्रवज्रा चन्द्रोदयवर्णन, परमार्थविचार और यात्रासमागमन है। न मानसे माद्यति मानस में पम्पा न सम्पादयति प्रमोदम्। इंद्रवज्रा उपेन्द्रवज्रा सर्गानुसार कीर्तिकौमुदी में प्रयुक्त छन्दों का लक्षणसहित अच्छोदमच्छोदकमध्यसारं सरोवरे राजति सिद्धभर्तुः विवेचन इस प्रकार है। प्रथम सर्ग नगर वर्णन में ८१ श्लोक हैं। इसमें आरंभ के ७६ श्लोकों में अनुष्टप छन्द प्रयुक्त हुआ है। इसके इस श्लोक के प्रथम और चतुर्थ चरण उपेन्द्रवज्रा में होने और पश्चात ७७ से ८१ श्लोकों में क्रमशः उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, पष्पिताग्रा, द्वितीय और तृतीय चरण इंद्रवज्रा में होने से इसमें उपजाति छन्द है। मालिनी तथा शार्दूलविक्रीडित छन्द प्रयुक्त हुए हैं। इन छन्दों का पुष्पिताग्रा' लक्षण एवं कीर्तिकौमुदी के अनुसार उदाहरण निम्नवत् है - अयुजि नयुगरेफतो यकारो। युजि च न जौ जरगाश्च पुष्पिताग्रा॥ अनुष्टुभ् - श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम्। यदि विषम पादों में दो नगणों से परे एक रगण, एक यगण द्विचतुःपादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः॥ हो और सम पादों में एक नगण, दो जगण, एक रगण और अंत अर्थात् अनुष्टुप् में आठ वर्ण वाले चार चरण होते हैं। में एक गुरु हो तो वह छन्द पष्पिताग्रा कहा जाता है। इसके अनेक प्रकार होते हैं। अनुष्टप् के प्रत्येक चरण का पाँचवाँ वर्ण लघु, और छठा गुरु होता है। प्रथम और तृतीय चरण का प्रतितटघटितामिघातजातप्रसृमरफेनकदम्बकच्छलेन। सातवाँ वर्ण गुरु और द्वितीय और चतुर्थ चरण का लघु होता है। हरहसितसितद्युतिं स्वकार्ति, दिशिदिशि कन्दलयत्ययं तडागः।।6।। शेष वर्ण या तो लघु या गुरु होते हैं। जैसे andramdariametiriromaishrirandomordGrowirdmirirdr ९ ८ diridihdniwariwarorandirdronowindiraniraniranorand Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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