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________________ मालिनी १० (ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः) जिसके चारों चरणों में क्रमशः नगण, नगण, मगण तथा यगण, यगण हों तथा आठ और सात अक्षरों पर यति हो, उसको मालिनी छन्द कहते हैं। यथा १९ = यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य अलघुलहरिलिप्तव्योमभागे तडागे, तरलतुहिनपिण्डापाण्डुडिण्डीरदम्भात्। तरुणतरणितापव्यापदापन्नमुच्चैरिह विहरति ताराचक्रवालंविशालं ।। ८० ।। शार्दूलविक्रीडित १२ - सूर्याश्वैर्मसजास्तताः सगुरवः शार्दूलविक्रीडितम्" अर्थात् जिसमें मगण, सगण, जगण, सगण और तगण तथा अन्त में एक गुरु हो और बारह, सात वर्णों पर यति हो तो उस छन्द का नाम शार्दूलविक्रीडित होता है। जैसे १३ - इस सर्ग में प्रयुक्त छन्दों में से वसन्ततिलका छन्द को छोड़कर अन्य छन्दों का लक्षण प्रथम सर्ग के विवरण के क्रम में दिया जा चुका है। इसका लक्षण एवं कीर्तिकौमुदी से इसका उदाहरण निम्नवत् है- वसन्ततिलक १४ ज्ञेयं वसन्ततिलकं तभजा जगौ गः । एकत्र स्फुटदब्जराजिरजसा बभ्रुकृतः सुभ्रुवां, प्रभ्रश्यत्कुचकुम्भकुकुंमरसैरन्यत्र रक्तीकृतः । अन्यत्र स्मितनीलनीरजलदलच्छायेन नीलीकृतः, श्रेयः सिन्धुरवर्णकम्बलधुरां धत्ते सरः शेखरः ॥81॥ यौवनेऽपि मदनान्न विक्रिया, नो धनेऽपि विनयव्यतिक्रमः । शालिनी १८ द्वितीय सर्ग ‘नरेन्द्रवंशवर्णन' में ११५ श्लोक हैं। इसके दुर्जनेऽपि न मनागनार्जवं केन वामिति नवाकृतिः कृता ॥६१/३॥ प्रारंभ में ८१ श्लोक अनुष्टुप् में, अठारह श्लोक (८२ से ९९ ) उपजाति में, तीन (१०० से १०२ ) इन्द्रवज्रा में, बारह (१०३११४) वसन्ततिलका में और अंतिम ११५वाँ श्लोक मालिनी छन्द में हैं। जिसके चारों चरणों में क्रमशः तगण, भगण, जगण और दो गुरुवर्ण हों उसको वसन्ततिलक नामक छन्द कहते हैं। जैसे १५ - मुण्डेव, खण्डितनिरंतरवृक्षखण्डा, निष्कुष्डलेव दलितोज्ज्वलवृत्तवप्रा । दूरदपास्तविषया विधवेव दैन्यमभ्येभ्रम्येति गूर्जरधराधिपराजधानी ।। १०४ / २ । । Jain Education International मन्त्रप्रतिष्ठा नामक तृतीय सर्ग में श्लोकों की संख्या ७९ है। इस सर्ग में प्रथम ५० श्लोक अनुष्टुभ् में निबद्ध हैं। इसके २२ श्लोक (५१ से ७३) रथोद्धता में, दो (७४-७५ ) शालिनी में और श्लोकसंख्या ७६ वंशस्थ में, ७७ शिखरिणी में, ७८ मालिनी में और अंतिम ७९ पुष्पिताग्रा में निबद्ध है। ऊपर प्रयुक्त छन्दों में से अनुष्टुप् मालिनी और पुष्पिताग्रा का परिचय दिया जा चुका है। अन्य छन्दों रथोद्धता, शालिनी, वंशस्थ और शिखरिणी का लक्षण और कीर्तिकौमुदी से उनके उदाहरण निम्नवत् हैं- रथोद्धता १६ For Private रान्नरातिह रथोद्धता तगौ । अर्थात् रगण, नगण, रगण, एक लघु, एक गुरु हो तो उसका नाम रथोद्धता है उदाहरण १७ शालिन्युक्ता तौ तौ गोऽब्धिलोकैः ॥ अर्थात् इस छन्द के प्रत्येक चरण में क्रमशः मगण, दो तगण और दो गुरु होते हैं। चार तथा सात वर्णों पर यति होती है। उदाहरण १९ दृष्टिर्नष्टा भूपतीनां तमोभिस्ते लोभान्धान् साम्प्रतं कुर्वतेऽ । वर्त्मना तेन यत्र, श्रश्यन्त्याशु व्याकुलास्ते पिऽ तेऽपि । । ७५ । । ३ वंशस्थ २० तौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ । । अर्थात् वंशस्थ के चारों चरणों में से प्रत्येक में जगण, तगण, रजगण और रगण होते हैं। उदाहरण २१ न सर्वथा कश्चन् लोभवर्जितः करोति सेवामनुवासरं विभोः । तथापि कार्यः स तथा मनीषिभिः परत्र बाधा न यथाऽत्र वाच्यता । । ७६ / ३ ট{ १९ ট Personal Use Only MÓZÓRÓ www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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