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________________ जैन-न्याय में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तथा तर्क डॉ. वशिष्ठ नारायण सिन्हा वाराणसी... जैन एवं जैनेतर-दर्शनों में-स्मृति संबंधी अनेक जाने के बाद भी उसके मानस-पटल पर पूर्व अनुभव की रेखाएँ चर्चाएँ मिलती हैं। व्यवहार में भी स्मृति एक परिचित विषय के बनी रहती हैं और वह कह बैठता है- दह। दह शब्द उसके पूर्व रूप में देखी जाती है। किन्तु यह ज्ञान का प्रमाण बन सकती है अनुभव को सूचित करता है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी कहा है - अथवा नहीं? इसके संबंध में विभिन्न मत देखे जाते हैं। किसी ने 'वासनोदबोधहेतुका तदित्याकारा स्मृतिः। इसे प्रमाण माना है तो किसी ने इसे प्रमाण मानना दोषपूर्ण कहा वह ज्ञान जो वासना के उद्बोध के कारण उत्पन्न होता है है। कहीं-कहीं दृष्टिकोण-भेद से दोनों बातें मानी गई हैं, अर्थात् सेस्पति कहते हैं। संस्कार और वासना दोनों ही शब्द उस छाप एक दृष्टि से यह प्रमाण हो सकती है, परतु दूसरी दृष्टि से यह को इंगित करते हैं जो व्यक्ति पर पर्व अनभव के फलस्वरूप अप्रमाण है। इस प्रकार स्मृति एक समस्याजनक विषय है। पड़ी होती है। कोई व्यक्ति आगरा जाता है और ताजमहल देखता जैन-दर्शन में परोक्ष प्रमाण के पाँच भाग माने गए हैं- है। उसके मन पर ताजमहल के रूप-रंग, आकार-प्रकार की स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान तथा आगम। किन्तु एक छाप पड़ जाती है, जिसके फलस्वरूप अपने घर आने पर, वादिराजसूरि के द्वारा परोक्ष प्रमाण का जो विभाजन प्रस्तुत किया यद्यपि ताजमहल उसके सामने नहीं होता है, वह अपने पड़ोसियों गया है वह कुछ भिन्न है। उसके अनुसार - अनुमान के दो भेद को उसके विषय में सभी बातें सुनाता है। दो वर्ष, चार वर्ष या होते हैं-मुख्य तथा गौण। गौण अनुमान के तीन प्रकार होते हैं- उससे भी अधिक समय व्यतीत होने पर जब भी वह आगरा की स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तथा तर्क। इसके अलावा उन्होंने यह भी चर्चा सुनता है उसके मानस पर ताजमहल की रूपरेखा चमक माना है कि स्मृति प्रत्यभिज्ञान का कारण है, प्रत्यभिज्ञान तर्क का उठती है। उसे लगता है, जैसे ताजमहल उसके सामने खड़ा है। कारण है और तर्क अनुमान का कारण है। संभवतः इसीलिए यही संस्कारगत या वासनागत ज्ञान है। जिसे स्मृति कहते हैं। सूरिजी ने इन्हें भी अनुमान की कोटि में रखा है। उन्होंने आचार्य आधुनिक मनोविज्ञान में भी इसका विश्लेषण प्राप्त होता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार प्रत्यक्ष अनुभव की धारणा, प्रत्यस्मरण उन पर अकलंक का प्रभाव रहा हो, ऐसा संभव है। ऐसा ही तथा प्रत्यभिज्ञा के माध्यम से स्मृति की प्रक्रिया सम्पन्न होती सोचते हुए उनकी प्रमाण-विभाजन-प्रक्रिया के संबंध में पं. है। जैन-दर्शन स्मृति के कारण स्वरूप, संस्कार या वासना पर कैलाशचंद्र शास्त्री ने लिखा है-२ न्यायविनिश्चय के तीन परिच्छेदों अधिक बल देता है जिसका उद्बोध समानता, विरोध, में अकलंक ने क्रम से प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण का आवश्यकता आदि विभिन्न कारणों से ही है। ही कथन किया है। अत: वादिराजसूरि ने परोक्ष के अनुमान राक्ष क अनुमान स्मृति के रूप--भारतीय दर्शन में स्मृति के दो रूप देखे जाते हैंऔर आगम भेद करके शेष तीन परोक्ष प्रमाणों को अनुमान में १. ग्रन्थरूप-वैदिक साहित्य में श्रुति और स्मृति को गर्भित कर लिया प्रतीत होता है। प्रमुख स्थान प्राप्त है। मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति आदि ऐसे आचार्य माणिक्यनन्दी ने स्मृति को परिभाषित करते हुए ग्रन्थ है जिनके अध्ययन के बिना वैदिक धर्मदर्शन का ज्ञान कहा है - संस्कारोबोधनिबन्धना तदित्याकारा स्मृतिः। संस्कार अधूरा ही रह जाता है। अतः इनके संबंध में भी यह समस्या के उद्बोधित होने पर प्राप्त होने वाला ज्ञान स्मृति है। भूतकाल उठती है कि इन्हें प्रमाण की कोटि में रखा जाए अथवा अप्रमाण में व्यक्ति को जो अनुभव प्राप्त होते हैं वे उस पर अपना संस्कार की कोटि में? चूँकि यह समाज के सामने खुले रूप में है, इसलिए अंकित कर जाते हैं जिसके कारण अनुभव-काल समाप्त हो इसे यदि स्मृति का सामाजिक रूप कहें तो अनुचित न होगा। did=6andsonsionsanskosdasionardandinidad ४७idroid-indostosdadrindiadrirasad- Sadridrd Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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